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परिशिष्ट
क्षपकणि के विधान का स्पष्टीकरण
श्रपकथेणि में भय होने वाली प्रकृतियों के नाम कर्मग्रन्थ के अनुरूप आवश्यक नियुक्ति गा० १२१-१२३ में बतलाये हैं । गोर कर्मकांड में शपकश्रेणि का विधान इस प्रकार है
णिरयतिरिक्ससुरागसते ण हि वेससयलबवखवगा । अयदश्चतक्कं तु अणं अणियट्टीकरणचरिमम्हि ॥ ३३५ जुगवं संजोगिसा पुणोवि अणियट्टिकरणबहुमागं ।
पोलिय कमसो मिच्छ मिस्सं सम्म खवेषि फमे ।। ३६६ अर्थात्-नरक, तिथंच और देवायु के सस्व होने पर क्रम से देशवत, महाश्रत और भपक थेणि नहीं होती, यानी नरकासू का सत्व रहते देशवत नही होते, तिमंचायु के सत्व में महाव्रत नहीं होते और देवायु के सत्व में क्षपकवेणि नहीं होती है । अत: पक थणि के आरोहक मनुष्य के नरकायु, तिर्यचायु और देवायु का सत्त्व नहीं होता है तथा असंयत सभ्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त संयत अथवा अप्रमत्त संबत मनुष्य पहले की तरह अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तीन करण करता है । अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का एक साथ विसंयोजन करता है, उन्हें अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषायों और नौ नोकषाय स्प परिणमाता है और उसके बाद एक अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम करके दर्शनमोह का क्षपण करने के लिये पुनः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करता है । अनिवृत्तिकरण के काल में से जब एक भाग काल बाकी रह जाता है और बहुभाग बीत जाता है, तब क्रमशः मिथ्यात्व, मिन और सम्यक्त्व प्रकृति का क्षपण करता है और इस प्रकार क्षायिक सम्पदृष्टि हो जाता है ।
इसके बाद चारित्रमोह का क्षपण करने के लिये लपक श्रेणि 'पर आरोहण करता है। सबसे पहले सातवें गुणस्थान में अधःकरण करता है और उसके बाद आठवें गुणस्थान में पहुंच कर पहले की ही तरह स्थिति खंडन, अनुभागखंडन आदि कार्य करता है। उसके बाद नौवें अनिवृसिकरण गुणस्थान में पहुँच कर