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परिशिष्ट २
श्रीमान योगों (परावर्तमान बोयों) का धारक असंजो जाव नरकद्विक.. देवायु तथा नरकायु का जवन्य प्रदेशबन्ध करता है । आहारकद्विक का अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती तथा चोथे अविरत गुणस्थान वाला ( पर्याय के प्रथम समय में जघन्य उपपाद योग का धारक ) तीर्थंकर प्रकृति और देवचतुष्क, कुल पाँच प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इन ग्यारह प्रकृतियों से शेष बची हुई १०३ प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबन्धक की विशेषता को बतलाते हैंचरमपुष्णभवत्यो तिविवाहे पढमविगाहम्मि ठिक ।
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सुमभिगोदो अंधवि सेसाणं अरबंध सु ॥ २१७
लब्ध्यपर्याप्तक के ६०१२ भों में से अन्त के भव को धारण करने वाला और विग्रहगति के तीन मोड़ों में से पहले मोड़ में स्थित सूक्ष्म निगोदिया जीव शेष रही १०६ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है ।
कर्मग्रन्थ और गो० कर्मकांड, दोनों में १०६ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्धक सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव माना है। कर्मग्रन्थ में जन्म के प्रथम समय में उसको बन्धक बतलाया, लेकिन गो० कर्मकांड में लब्ध्यपर्याप्तक के ६०१२ भवों में से अन्तिम भव को धारण करने वाले को बतलाया है।
गुणश्रभि की रचना का स्पष्टीकरण
ऋक्षण से लेकर प्रतिसमय असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे कमंदलिकों की रचना को गुणश्रेणि कहते हैं । इस गुणश्रेणि के स्वरूप को स्पष्ट बरसे हुए कर्मप्रकृति गा० १५ की टीका में उपाध्याय यशोविजयजी ने लिखा हैअधुना गुणश्व णिस्वरूपमाह यत्स्थितिकण्डकं घातयति तन्मध्याद्दलिकं नृहीत्वा उदयसमयादारभ्यान्तमुहूर्त चरमसमयं
यावत्
प्रतिसमयमयेय
गुणनया निक्षिपति । उक्तं च-
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जयरिलहितो घणं पुग्गले उ सो विद्द | squeaufor घोषे तत्तो व असंखगुणिए उ || श्रीयम् विवइ समए तइए तत्तो असंलगिए उ । एवं समए समए अन्तमुत्तं तु का पुन्नं ॥
एवः प्रथमसमयगृहीतदलिक निक्षेपविधिः । एवमेव द्वितीयादिसमय