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परिशिष्ट-३ जो क्रिया होती है, वह गणना में नहीं ली जाती है । सूक्ष्म पुद्गल परावर्तो को । जो व्यवस्था है, वहीं व्यवस्था यहाँ समझना चाहिये। उत्कष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों का गोम्मटसार कर्मकांड में आगत वर्णन
दिगम्बर साहित्य गो कर्मकांड में भी प्रदेशबंध के स्वामियों का वर्णन किया गया है । जो प्राय: कर्मग्रन्य के वर्णन से मिलता-जुलता है । तुलनात्मक मध्ययन में उपयोगी होने से संबंधित अंश यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबंध के स्वामियों के बारे में यह सामान्य नियम है कि उत्कृष्ट लोगों सहित, संजो पर्याप्त और प्रोदी एकति मा ा करने वाला जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा जपन्य गोग वाला असंज्ञी और अधिक प्रकृतियों का बंध करने वाला जघन्य प्रदेशाबंध करता है ।
सर्वप्रथम मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट बंध का स्वामित्व गुणस्थानों में कहते ।
आजमकस्स पदेस छक्कं मोहस्त णव दुठाणापि ।
सेसाण तणकसाओ बंदि उपकस्सनोगेण ॥ २११ __ आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबध छह गुणस्थानों के अनन्तर सातवें गुणस्थान में रहने वाला करता है । मोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध नौवें गुणस्थानबर्ती करता है और आम व मोहनीय के सिवाय शेष जानाधरण आदि छह को का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध उत्कृष्ट योग का धारक दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानबाला जीव करता है । यहाँ सभी स्थानों पर उत्कृष्ट योग द्वारा हो पन्ध जानना चाहिए । उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन का स्वामित्य इस प्रकार है
ससर सुहमसरागे पंचणिपट्टिम्हि वेसगे सदियं । अयये विविप्रकसायं होवि ह उक्तस्सदश्वं तु ॥२१२ छण्णोकसायणिद्दापयलातित्यं च सम्मगो यजदी। सम्मो वामो तेरं परसुरआउ भसावं तु ॥११३ देवचरमक व समर सस्थामणसुभगति । आहारमप्पमतो सेसपासुबको मिन्डो ॥२१४