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पंचम फर्मग्रन्ध
___ ४१६ इस प्रकार से पंचसग्रह और कर्म प्रकृति के मत में अंतर है। आयुकर्म के अबाधाकाल का स्पष्टीकरण
देव, नारक, तिर्यच, मनुष्य मायु की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते समय अबाधासाल पूर्व कोटि का तीसरा भाग बतलाया है । इसका कारण यह है कि पूर्व फोटि वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तियं च यथायोग्य रीति से अपनी आयु के दो भाग बीतने के पश्चात् तीसरे भाग के प्रारम्भ में देव, नारक का सेतोस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु बांध सकते हैं. इसलिए उत्कृष्ट स्थिति के साथ अबाधा रूप कास पूर्व कोटि का तीसरा भाग लेने का संकेत किवा है । जैसे अन्य सभी कर्मों के साथ अबाधाकाल जोडकर स्थिति कही है वैसे आयुकाम की स्थिति अबाधाकाल जोड़कर नहीं बताई है । क्योंकि उसका अवाधाकाल निश्चित नहीं है । असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंच एवं देव तथा मारक अपनो आयु के छह माह शेष रहने पर परमव की आयु बांधते हैं और शेष संख्यात वर्ष की निरुपक्रमी आयु वाले अपनी आयु के दो भाग बीतने के पश्चात तीसरे भाग की शुरुआत में परमन को आयु का बंध करते हैं और सोपक्रमी आयु वाले कुल आयु के दो भाग जाने के पश्चात तीसरे भाग के प्रारम्भ में बांधते हैं । यदि उस समय आयु का बध न करें तो जितनी आयु शेष हो उसके तीसरे माग की शुरूआत में बांधते हैं । इसका आशय यह है कि संपूर्ण आयु के तीसरे भाग, नौवें भाग, मत्ताईसवें भाग, इस प्रकार जब तक अंतिम अन्तर्मुहूर्त आयु शेष हो तब परमर की आयु का बंध करते हैं। परभव की आयु का बंध करने के बाद जितनी आयु मेष हो, वह अबाधाकाल है तथा अबाधा जघन्य हो और आयु का बंध में: जघन्य हो जैसे अन्त मुंहतं की आयु वाला अन्तर्मुहूर्त प्रभाग आयु बांधे । अबाधा जघन्य हो और आयु का बंध उत्कृष्ट हो जैसे अन्न मुहूर्त की आयु वाला तेतीस सागर प्रमाण त दुल मत्स्य की तरह नारक का आयु बांधे । उत्कृष्ट अबाधा हो और आयु का जघन्य बध हा अंस पूर्व कोटि वर्ष की मायु वाला अपनी आयु के तीसरे भाग के प्रारम्भ में अन्तर्मुहूर्न आयु का बंध करे तथा उस्कृष्ट अवाधा हो और आश्रु का बंध भी उत्कृष्ट हो जैसे पूर्व कोटि वर्ष वाला तीसरे भाग की शुरुआत में से तीस सागरोपम प्रमाण देव,