Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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परिशिष्ट-२
एकेन्द्रिय लन्यपर्याप्तक का जघन्य परिणाम योगस्थान, इन दोनों के बीच में जगत्त्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थानों का पहला अंतर है। इस अंतर के स्थानों का कोई स्यामी नहीं है। क्योंकि ये स्थान किसी जीव के नहीं होते हैं, इसी कारण यह अंतर पड़ जाता है । इन स्थानों को छोड़कर सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय लन्थ्यपर्याप्तक इन दोनों के जघन्य और उत्कृष्ट परिणामजोगस्थान क्रम से पल्प के असंख्यातवें भाग कर गुणे जानना चाहिये ।
अंतरमुपरोवि पुष्णो तप्पुण्यागं व उरि अंतरियं ।
एयतावठाणा तसपणलावस अवरवरा ॥ २३६ इसके ऊपर दूसरा अंतर है। अर्थात् बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक के उत्कृष्ट परिणाम मोगस्थान के आगे जगतथेणी के असख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान स्वामीरहित हैं। इनको छोड़कर शूटम एकोन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तफों के जधन्य और उत्कृष्ट परिणाम योगस्थान क्रम से पल्प के असख्यातवें भाग से गुणे है । फिर इस हादर एफेन्द्रिय पर्याप्त के उत्कृष्ट योगस्थान के आगे तीसरा अंतर है। उसको छोड़कर पाँच प्रमों के अति द्वीन्द्रिय लब्धिअपर्याप्सक आदि पांच के जधन्य और उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगस्थान क्रम से पल्प के असंख्यात भाग से गुणे हैं ।
सोणिबत्तीर्ण परिणामयंतरिवठाणाओ।
परिणामट्ठागाओ अन्तरअन्तरिय उपस्वरि ।। २४० इसके आगे चौथा अन्तर है । इसके बाद लब्धि-अपर्याप्तक और निसि अपर्याप्तफ पाँच प्रसजीवों के परिणामयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धि योगस्थान और परिणामयोगस्थान तथा इनके ऊपर बीच-बीच में अन्तर सहित स्थान हैं । ये तीनों स्थान उत्कृष्ट और जवन्य पने को लिये हुए पहली रीति से कम पूर्वक पत्य के असंख्यातवें भाग से गुणित जानना ।
इस तरह ८४ स्थान योगों के हैं । इन स्थानों में अविभाग प्रतिछेद एक के बाद दूसरे में आगे-आगे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणे हैं ।
कर्मग्रन्थ में योग के उपपाद पोगस्थान मादि तीन भेद नहीं किये हैं, इसीलिये जघन्य और उत्कृष्ट, इन दो भेदों को लेकर बीवस्थानों के २८ भेद