Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 457
________________ परिशिष्ट-२ एक योगस्थान में सब स्वद्धंकों, सब वर्गणाओं की संख्या और असंख्यात प्रदेशों में गुणहानि का आयाम (काल) का प्रमाण सामान्य से जगत्वं णि के असंध्यातमें भाग मात्र है । क्योंकि असंख्यात के बहुत भेद हैं। एक योगस्थान में अविभाग प्रतिच्छेद असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। ऊपर जो योगस्थान कहे हैं, उनमें चौदह जीवसमामों के जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा तथा उपपादादिक नीन प्रकार के योगों की अपेक्षा चौरासी स्थानों में अब अल्पबहत्व बतलाते हैं सुहमगरल सिजाहणं तिषिणस्वरसीजहणयं तत्तो । लासिअपुष्णपकस्स चादरलविस्स अघरमको ।। २३३ सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यगर्याप्तक जीव का जघन्य उपमादस्थान सबसे थोडा है, उससे सूक्ष्म निगोदिया निवृ त्यपप्तिक जीव का जघन्य उपपादस्थान पल्प के असंख्यातवें भाग गुणा है, उससे अधिक सूक्ष्म लयपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपादयोगस्थान और उससे भी अधिक वादर लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य उपपादयोगस्थान मानना चाहिये । मिष्यत्तिसुहमजेटुं मावरणियत्तिपस्स अवरं तु । बादरलखिस्स वर पोइ वियलद्विगमहणं ॥ २३४ फिर उससे अधिक सूक्ष्म नित्यपर्याप्तक जीव का उत्कृष्ट उपपाद योगस्थान है। उससे अधिक बादर निवृत्यपर्याप्तक का जघन्य योगस्थान है, उससे बाबर लन्ध्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट योगस्थान अधिक है, उससे अधिक हीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक का जघन्य योगस्थान है। बावरणियत्तिवरं णित्तिमि दियस्स अवरमयो । एवं चितिवितितिश्चतिच घधिमणो होदि घउधिमणो ॥ २३५ उसके बाद उससे भी अधिक बादर एकेन्द्रिय नित्यपर्याप्नक का उत्कृष्ट योगस्थान है, उसमे अधिक हीन्द्रिय निर्वत्यपर्याप्तक का जघन्य योगस्थान और. इसी तरह द्रीन्द्रिय लक्ष्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट ना त्रीन्द्रिय नब्ब्यपर्याप्तक का जघन्य उपपाद स्थान, द्वीन्द्रिय नित्यपर्याप्तक का उत्कृष्ट, त्रीन्द्रिय निवृ त्य पर्याप्तक का जघन्य, त्रीन्द्रिय लब्धि-अपर्याप्तक का उत्कृष्ट,

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