Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

Previous | Next

Page 455
________________ परिशिष्ट-२ नारक की आयु का बंध करे । इस प्रकार अबाधा के विषय में आयूकर्म की सह पोभंगी है । इस तरह अबाधा अनिश्चित होने से गायु के साथ उसे जोड़ा ! नहीं है तथा अन्य कर्म अपने स्वजातीय कर्मों के स्थानों को अपने बंध के द्वारा पुष्ट करते है और यदि उनका उदय हो तो उसी जाति के बंधे हुए नये कर्मों की सभी आदलिका जाने के बाद उदीरणा द्वारा उसका उबय भी होता है, लेकिन आयुकर्म के बारे में यह नियम नहीं है। बंधने वाली आयु भोगी जाने वाली आयु के एक भी स्थान को पुष्ट नहीं करती है तथा मनुष्य आयु । को भोगते हुए यदि स्वजातीय मनुष्य आयु का बंध करे तो वह बंधी हुई आयु अन्य मनुष्य जन्म में जाकर ही भोगी जाती है 1 यहीं उसके किसी दलिक का उदय या उदीरणा नहीं होने से भी आयु के साथ अबाधा कास नहीं हा है। योगस्थानों का विवेचन कमंग्राय को तरह गोः कर्मकांड गा. २१८ से २४२ तक योगस्यानों का विवेचन स्वरूप, संख्या तथा स्वामी की अपेक्षा से किया गया है । उसका उपयोगी अंश यहां प्रस्तुत करते हैं। ___ गोल कर्मकांड में योगम्थान के तीन मेद किये है और इन तीन भेदों फे भी १४ जीवसमासों की अपेक्षा चौदह-चौदह भेद हैं तया ये १४ भेद भी सामान्य, जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन-तीन प्रकार के हैं। उनमें से सामान्य की अपेक्षा १४ भेद, सामान्य और अन्य की अपेक्षा २८ भेद तथा ! सामान्य-जधन्य और उत्कुष्ट की अपेक्षा ४२ भेद होते हैं । कुल मिलाकर ये ८Y भेद हैं । जिनके नाम आदि इस प्रकार हैं जोगटठाणा तिविहा उपादेयंसद्धिपरिणामा । मेदा एक्केवपि घोदसभेवा पुणो तिविहा ॥२१८ उपपाद योगस्थान, एकांतद्धि योगस्थान और परिणाम योगस्थान, इस | प्रकार योगस्थान तीन प्रकार के हैं और ये तीनों भेद भी जीवसमास की अपेक्षा चौदह-चौदह भेद वाले हैं तथा उनके भी तीन-तीन भंद होते हैं। विग्रहगति में जो योग होता है उसे उपपाद योगस्थान' कहते हैं। शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक जो योगम्थान होता है उसे एकांतानुद्धि और शरीर - - ...

Loading...

Page Navigation
1 ... 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491