________________
१८
परिशिष्ट-२ कर्मप्रकृति में शेष प्रकृतियों की जघन्य स्थिति बतलाने के लिए वर्ग बना कर मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने का पहले संकेत किया गया है
और एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा से प्रकृतियों की स्थिति का परिमाण बतलाते हुए आगे लिखा है
एसेगिदियहरे सम्वासि ऊणसंजुओ जट्ठो । अर्थात अपने-अ . उत्कृष्ट गित . .... अति ! का भाग देकर लब्ध में से पल्य के असंख्यातवें भाग को कम करने से जो अपनी-अपनी जघन्य स्थिति आती है, वहीं एकेन्द्रिय योग्य जघन्य स्थिति का प्रमाण जानना चाहिए । कम किये गये पल्य के मसंख्यात भाग को उस जघन्य । स्पिप्ति में जोड़ने पर उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण होता है।
कर्मग्रन्थ में पचासी प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का विवेचन पंचर्सग्रह और कर्म प्रकृति दोनों के अमिनायानुसार किया है। इन दोनों विवेचन में यह अंतर है कि पंचसंग्रह में तो अपनी-अपनी प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्याश्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर जघन्य स्थिति बतलाई है और कर्म प्रकृति में अपने-अपने गं की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर और उसके लब्ध में से पल्प का असंख्यातयां भाग कम करके जघन्य स्पिति वतलाई है।
गो० कर्मकांड प्रकृतियों की स्थिति में भाग देने तक तो पंचसंग्रह के मत से सहमत है लेकिन आगे वह कर्मप्रकृति के मत से सहमत हो जाता है। पंचसंग्रह का मत है कि प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने पर जो लन्ध माता है, वह तो एकेन्द्रिय की अपेक्षा से जघन्य स्थिति होती है और उस में पल्य का असंख्यातवां भाग जोड़ने से उसकी उत्कृष्ट स्थिति हो जाती है। लेकिन जी. कर्मकांड और कर्मप्रकृति के मतानुसार मिध्वात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध पाता है वही उत्कृष्ट स्थिति होती है और उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग काम देने पर जघन्य स्थिति होती है । पंच- : संग्रह में तो अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में भाग नहीं दिया जाता है फिन्तु अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर प्राप्त सम्ध जघन्य स्थिति का परिमाण है।