Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 460
________________ परम कर्मग्रन्य ४२४ बतलाये हैं। दोनों ग्रन्यों के मैदक्रम में भी अन्तर है । जिज्ञासु जनों को इस अन्तर के कारणों का अन्वेषण करना चाहिए । ग्रहण किये गये कर्मस्कन्धों को फर्म प्रकृतियों में विभाजित करने को रोति पंचम फर्मग्रन्थ गाथा ७६, ८० में सिर्फ ग्रहण किये गये कर्मस्कन्धों के विभाग का क्रम यसलाया है कि आयुकर्म को सबसे कम, उससे नाम और गोत्र कर्म को अधिक, उससे अंतराय, भानावरण, दर्शनावरण को अधिक तथा मोहनीय को अंतराय आदि से भी अधिक भाग मिलता है तथा वेदनीय कर्म का भाग मोहनीय कर्म से भी अधिक है । इस प्रकार उससे इतना ही ज्ञात होता है कि अमुक कर्म को अधिक भाग मिलता है और अमुफ कर्म को कम भाग । कितु गो कर्मकांड में इस क्रम के साथ-ही-साय विभाग करने की रीति बतलायी है । जो इस प्रकार है कर्मग्रन्थ की तरह गोल कमंफ्रांद में भी ग्रहण किये हुए कर्मस्कंधों का मूल फर्म प्रकृतियों में बंटवारे का क्रम बतलाया है कि वेदनीय के सिवाय बाको मूल प्रकृतियों में द्रव्य का स्थिति के अनुसार विभाग होता है । सेसागं पयडोणं लिविपरिभागेण होरि वर्ष तु। आवलिअसंखभागो परिमागो होरि णियमेन ॥१६४ वेदनीय के सिवाय शेष मूल प्रकृत्तियों के द्रव्य का स्थिति के अनुसार विभाग होता है। जिसकी स्थिति अधिक है उसको अधिक, झम को कम और समान स्थिति वाले को समान द्रव्य हिस्से में आता है और उनके भाग करने में प्रतिभागहार नियम से आवली के असंख्यात भाग प्रमाण समझना चाहिये । आयु आदि शेष सात कर्मों में विभाग का क्रम इस प्रकार है ... आउगमायो बोयो णामागोदे समो तदो अहिओ। घावितियेवि य तत्तो मोहे तत्तो तयो तदिये ॥१६२ सब मूल प्रकृतियों में आयुकर्म का हिस्सा थोड़ा है । नाम और गोत्र कर्म का हिस्सा आपस में समान है तो भी आयुकर्म के भाग से अधिक है । अंतराय, ।

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