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परिशिष्ट-२
उससे अधिक भाग है। चारों युगलों में जो दो-वो स्पर्श हैं, उनका आपस में बराबर-बराबर भाग है।
आनृपूर्वी में- देवानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी का भाग सबसे कम किन्तु आपस में बराबर होता है । उससे मनुष्यानुपूर्वी और तिर्यंचानुपूर्वी का क्रम से अधिक-अधिक भाग है।
विहायोगति में-प्रणस्त विहायोगति का कम और अप्रशस्त विहायोगति का उमसे अधिक। ___असावि बीस में:-प्रस का कम, शावर का उससे अति ! पर्याप्त का कम, अपर्याप्त का उससे अधिक । इसी तरह प्रत्येक-साधारण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुगम-युभंग, मुझम-दादर और आदेय-अनादेय का भी समझना चाहिए तथा अयश:कीर्ति का सबसे कम और यशःकीति का उससे अधिक भाग है। आतप उद्योत, प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति, मुस्वर, दुःस्वर का परस्पर में बराबर भाग है।
निर्माण, इचश्वास, पराधात, उपधात, अनुरुलघु और तीर्षकर नाम का अल्पबहुत्व नहीं होता है। क्योंकि अल्पबहुत्व का विचार सजातीय अथवा विरोधी प्रकृतियों मे ही किया जाता है । जैसे कृष्ण नामकर्म के लिए वर्णनामकर्म के शोष भेद सजातीय हैं तथा सुभग और दुर्भग परस्पर में विरोधी हैं। किन्तु उक्त प्रकृतिमा न तो सजातीय हैं क्योंकि किसी एक पिड प्रकृति की अवान्तर प्रकृतिमा नहीं हैं तथा विरोधी भी नहीं हैं, क्योंकि उनका बंध एक साथ भी हो सकता है।
गोत्रकर्म - नीच गोत्र का कम और उच्च गोत्र का अधिक है।
अन्तरायकर्म - दानान्तराय का सबसे कम और लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य अन्तराय का उत्तरोत्तर अधिक भाग है ।
उत्कृष्ट पद की अपेक्षा से उक्त अल्पबहत्व समझना चाहिए और जघन्यपर की अपेक्षा से -
जानावरपा और वेदनीच का अल्पबहत्व पूर्ववत् है। दर्शनाबरण में निद्रा का सबसे कम, प्रचला का उसके अधिक, निदा. निदा