Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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परिशिष्ट-२. भाग को प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग हास्य और शोक' में से जिसका बंध हो, उसे देना चाहिये। शेष एक भाग में प्रतिभाग का भाग देकर बहुभाग भय को देना चाहिये और शेष एक भाग जुगुप्सा को देना चाहिये । अपने-अपने पएक भाग में पीछे का महभाग मिलाने से अपना-अपना दृष्य होता है।
नामकम-तियंगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक, तंजस, कामग तीन गरीर, हुंब संमान, वर्णचतुष्क, तिर्य चानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपधात, म्पावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशःकोति घोर निर्माण, इन तेईस प्रकृतियों का एक साथ बंध मनुष्य अपवा तिथंच मिथ्याइष्टि करता है । नामकर्म को जो द्रम्प मिलता है उसमें आवली के असंख्यातवें भाग का भाग देकर एक भाग को अलग रख बहभाग के इक्कीस समाम भाग करके एक-एक प्रकृति को एक-एक भाग देना चाहिये। क्योंकि ऊप! पीईस प्रतियों में नौकारिक वा और को तीनों प्रकृतियां एक मरीर नाम पिंड प्रकृति के ही अवान्तर भेद है। अतः इनको पृथक्-पृथक दव्य न मिलकर एक शरीर नामकर्म को ही हिस्सा मिलता है। इसीलिये इसक्रीम ही भाग किये जाते है।
शेष एक बहुमाग में आवली के असंख्यात भाग का भाग देकर अंत से । आदि को ओर के क्रम के अनुसार बहुभाग को देना चाहिये। जैसे कि शोष एक भाग में आमली के असंख्यातवें भाग का शग देकर बहभाग अंत की ‘निर्माण प्रकृति को देना चाहिये। शेष भाग में आवनी ः असंख्यातवे भाग का भाग देकर बहुभाग अयश कीर्ति को देना। शेष एक भाग में पुनः आपली के असंख्यात भाग का भाग देकर बहुभाग जनादेय को देना चाहिए। इसी प्रकार जो-जो एक भाग शेष रहे उसमें प्रतिभाग का भाग दे-देकर बहुभाग दुर्भग, अशुभ आदि को कम से देना चाहिये । अंत में जो एक भाग रहे, वह तियंचगति को देना चाहिये।
पहले के अपने-अपने समान भाग में पीछे का भाग मिलाने से अपनाअपना द्रव्य होता है। जहाँ पच्चीस, छब्बीस, अदठाईन, उनतीस, तीस, इकतीस प्रकृतियों का एक साथ बध होता है, वहाँ भी इसी प्रकार से बटवारे का क्रम जानना चाहिये। किन्तु जहाँ केवल एक मशःकीति का हो बंध होता है, वहीं नामकर्म का सब द्रव्य इस एक ही प्रकृति को मिलता है।