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परिशिष्ट-२
विक नहीं समझ लेना चाहिए । पानी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वेदनीय का प्रब्ध मोहनीय से ठीक दुगना है, वैसे ही वास्तव में भी दुगना एव्म होता है ।
उक्त उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मस्कन्धों के विभाजन में श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य में समानता है । कर्मग्रंथ में लाधव की दृष्टि से ही विभाग करने की रीति नही बतलाई जा सकी है। उत्तर प्रकृतियों में पुद्गल द्रव्य के वितरण व होनाधिकता का विवेचन
गो० कर्मकांड में गापा १६६ से २०६ तक उत्तर प्रकृतियों में पुद्गल द्रव्य के विभाजन का वर्णन किया गया है । कर्मग्रन्थ के समान ही घातिकर्मों को जो भाग मिलता है, उसमें से अनन्तवा भाग सर्वघाती द्रव्य होता है और शेष बहुभाग देशघाती द्रव्य होता है
सम्वावरणं नावं अगंतभागो मूलपपडीणं ।
सेसा असमागा देसावरणं हवे का ॥ १६७ गो० कर्मकांड के मत से सर्वधाती द्रव्य सर्वघाती प्रकृतियों को भी मिलता है और देशघाती प्रकृतियों को भी मिलता है
सम्वावरणं बच्वं विभंजणिज्नं तु उभपपयडीसु ।
बेसाहरणं वन्वं देसावरणेसु विदरे ॥ १६६ सर्वघाती द्रव्म का विभाग दोनों तरह की प्रकृतियों में करना चाहिए । किन्तु देशघाती द्रव्य का विभाग देशघाती प्रकृतियों में ही करना चाहिए। अर्थात् सर्ववाती द्रव्य सर्वधाती और देशघाती दोनों प्रकार की प्रकृतियों को मिलता है किन्तु देशघाती द्रव्य सिर्फ देशघाती प्रकृतियों में ही विभाजित. होता है।
प्राप्त द्रव्य को उत्तर प्रकृतियों में विभाजित करने के लिए एक सामान्य नियम यह है कि-----
उत्तरपयडोसु पुणो मोहावरणा हवंति होणकम।। अहियकमा पुम णामाभिधा प प मंजमं सेले १९६