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पंचम कर्मग्रन्थ
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होकर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेती है और केवल - ज्ञानी हो जाती है ।
उपशम श्रत्रि और क्षपक श्रपि में दूसरा अह है कि शमश्रण में सिर्फ मोहनीय कर्म को प्रकृतियों का ही उपशम होता है लेकिन क्षपक श्रोणि में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के साथ नामकर्म की कुछ प्रकृतियों व ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय कर्म की प्रकृतियों का भी क्षय होता है ।
क्षपक श्रेणि में प्रकृतियों के क्षय का क्रम इस प्रकार है
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आठ वर्ष से अधिक आयु वाला उत्तम संहनन का धारक, चौथे, पांचवें, छठे अथवा सातवें गुणस्थानवर्ती मनुष्य क्षपक श्र ेणि प्रारंभ करता है ।" सबसे पहले वह अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का एक साथ क्षय करता है और उसके शेष अनंतवें भाग को मिथ्यात्व में स्थापन करके मिथ्यात्व और उस अंश का एक साथ नाश करता है । उसके बाद इस प्रकार क्रमशः सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति का क्षय करता है । *
जब सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति एक आवलिका मात्र बाकी रह जाती है तब सम्यक्त्व मोहनीय की स्थिति आठ वर्ष प्रमाण बाकी अबिरयदेमपमत्तापमत्तविरयाणं ।
पबिती ए अन्नयरो पडिवज्जइ सुद्धज्माणोवगयचित्तो ||
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- विशेषावश्यक भाष्य १३२१
दिगम्बर संप्रदाय में उपथम श्रेणि के आरोहक की तरह क्षपक श्रेणि के आरोहक को सप्तम गुणस्थानवतीं माना हैं। क्योंकि चारित्रमाहीम के क्षपण से ही पकणि मानी है ।
पढमसाए समय खवे
अंतोमुत्तमेत्तणं ।
तत्तो विर्य मिच्छतं तख य मी तओ सभ्य ||
-- विशेषावश्यक भाष्य १३२२