Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्य
संघासन की कार्मण शरीर के अन्तर्गत वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नामकर्म के अनुक्रम से पाँच, दो, पाँच और बाठ उत्तर भेद होते हैं। उनकी बंध और उक्ष्य में विवक्षा नहीं की है परन्तु सामान्य से वर्णादि चार ही माने है, क्योंकि इन बीस का साथ ही बंध और उदय होता है, एक भी प्रकृति पहले या बाद में बंध या उदय में से कम नहीं होती है। इसीलिये बंध और उदय में वर्णादि चतुष्क को माना है ।
इस प्रकार बंध और उदय में अविवक्षित पाँच बंधन, पाँच संघातन और वर्णादि सोलह प्रकृतियों का सत्ता में ग्रहण होने से कुल मिलाकर एकसी अड़तालीस उत्तर प्रकृति सत्ता में मानी जाती हैं और जब बंधन नामकर्म के पौत्र की बजाय पन्द्रह भेद करते हैं तो मत्ता में एकसो अट्ठावन प्रकृतियाँ समझना चाहिये |
संक्षेप और विस्तार की अपेक्षा बंध, उदय और सत्ता में प्रकृतियों की भिन्नता मानी जाती है ।
मोहनीयकर्म को उत्तरप्रकृतियों में भूयस्कार आदि बंध
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कर्मग्रन्थ में मोहनीयकर्म के दस बंधस्थान तथा उनमें नो मूयस्कार, झा अल्पतर दस अवस्थित और दो अवक्तव्य बंध माने हैं । लेकिन गो० कर्मकांड में बीस भुजाकार, ग्यारह मल्पतर, तेतीस अवस्थित और दो वक्तव्य बंध बतलाये है, जो निम्नलिखित गाथा में स्पष्ट किये हैं
दस वोसं एक्कारस तेतीसं मोहबंधठाणाणि । मुअगारप्पवाणि य अवयवाणिथि य सामणे ॥४६८
मोहनीय कर्म के दस बंधस्थानो में बीस भुजाकार (भूयस्कार), ग्यारह अल्पतर, तेतीस अवस्थित और 'थ' से दो अवस्थबंध सामान्य से होते हैं। कर्मग्रन्थ और कर्मकांड के इस विवेचन में अंतर पड़ने का कारण यह है कि कर्मग्रन्थ में भूयस्कार आदि बंधों का विशेषन केवल गुणस्थानों में उतरने और चढ़ने की अपेक्षा से किया गया है किन्तु कर्मकांड में उक्त दृष्टि के साथसाथ इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि गुणस्थान आरोहण के समय जीव किस गुणस्थान से किस-किस गुणस्थान में जा सकता है और अवरोहण के