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परिशिष्ट-२
जो किचिन्मात्र भी शृद्धि को प्राप्त नहीं हुए हैं परन्तु मिथ्यात्व मोहनीय रूप ही रहते हैं, वे अशुद्ध कहलाते हैं।
इस प्रकार सम्यत्व मोहनीय और मित्र मोहनीय सम्यक्त्व गुण द्वारा सत्ता में ही शुद्ध हुए मिथ्यात्व मोहनीय फर्म के पुद्गल होने से उनका बंध नहीं होता है किन्तु मिन्यात्व मोहनीय काही बंध होता है, जिससे बंध के विचार-प्रसंग में सम्यक्त्व माहनीय और मिन मोहतोय के बिना मोहनीय कर्म की प्रब्बीस प्रकृतियाँ मानो जाती हैं।
इसी प्रकार पाँच वन्धन, पांच संघातन का अपने-अपने शरीर के अन्तर्गत ग्रहण करने से और वर्णादिक के वीस भेदों का वर्णचतुष्क में ग्रहण होने से उनकी सोलह प्रकृतियों के विना नामकर्म की सरसठ प्रकृतियां बंध में ग्रहण की जाती है और शेष कर्मों की प्रकृतियों में न्यूनाधिकता नहीं होने से सम्पूर्ण प्रकृतियों का योग करने पर बंध में एक सो बीस उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं। उदम के विचार के प्रसंग में सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय का भी उदय होने से उनकी वृद्धि करने पर एक सौ बाईस उत्तर प्रकृतियां मानी जाती हैं।
यद्यपि बंध और उदय का जब विचार किया जाता है तब बंधन और संघातन नामकर्म के पांच-पांच भेदों की उन-उन शरीरों के अन्तर्गत विवक्षा कर ली जाती है। किन्सू पांचों बन्धनों और पांचों संघातनों का बंध है और उदय भी है अपने अपने नाम वाले शरीर नामकर्म के साथ, इसीलिये उनकी बंध और उदय में अलग से विवक्षा नहीं की है किन्तु सत्ता में अलग-अलग बताये हैं और बताना ही चाहिए। क्योंकि यदि सत्ता में उनको न बताया जाये तो मूल वस्तु का ही अभाव हो जायेगा। बन्धन और संघातन नामक कोई कर्म ही नहीं रहेंगे।
पाच बन्धन और पांच संघातन नामकर्मों की शरीर नामकर्म के पाँच भेदों में इस प्रकार विवक्षा की जाती है.--औदारिकबंधन और औदारिक संघातन की औदारिक शरीर के अन्तर्गत, वैक्रिमबन्धन और क्रिय संघातन की बैंक्रिय शरीर के अन्तर्गत, आहारकबन्धन और आहारक संघातन की आहारक शरीर के अन्तर्गत, संजसबन्धन और तेजस संघातन की तैजस शरीर के अन्तर्गत और कार्ममबन्धन व कर्ममा