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शतक
में पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियों का क्षपण किया जाता है और उनके क्षय के पश्चात आठ कषायों का भी अन्तमु हुन में ही क्षय कर देता है।'
उसके पश्चात नौ मोक्षाय और चार संचलन कापायों में अन्तरकरण करता है । फिर क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और हास्यादि छह नोकषायों का क्षपण करता है और उसके बाद पुरुषवेद के तीन खंड करके दो खण्डों का एक साथ क्षपण करता है और तोसरे खण्द्ध को संज्वलन क्रोध में मिला देता है। ___उक्त क्कम पुरुषवेद के उदय से श्रेणि चढ़ने वाले के लिये बताया है । यदि स्त्री घोणि पर आरोहण करती है तो पहले नपुंसकवेद का क्षपण करती है, उसके बाद क्रमशः पुरुषवेद, छह नोकपाय और स्त्रीवेद का क्षपण करती है यदि नपुंसक श्रेणि आरोहण करता है तो वह पहले स्त्रीवेद का क्षपण करता है, उसके बाद क्रमशः पुरुषवेद, छह नोकषाय और नपुंसक वेद का क्षपण करता है । सारांश यह है कि
किसी-किसी का मत है कि पहले सोलह प्रकृतियों के ही क्षय का प्रारम्भ फरता है और उनके मध्य में आठ कषायों का क्षय करता है, पश्चात् सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है । गो. कर्मकांड में इस सम्बन्ध में मतान्तर का उल्लेख इस प्रकार किया है
णरिम अणं उबसमगे स्ववगापुत्वं शक्त्तुि अट्ठा य । पच्छा सोलादीणं खवणं इदि केइ णिट्ठि ॥३६१।। उपशम श्रेणी में अनंतानुबंधी का सत्व नहीं होता और क्षपक अनिवृप्तिकरण पहले आठ कषायों का क्षपण करके पश्चात् सोलह आदि प्रकृतियों का क्षपण करता है, ऐसा कोई कहते हैं ।।
इत्थी उदए नपुसं इत्थीवेयं च सत्तगं च कमा । अपुमोदयंमि जुगवं नपुसइत्थी पुणो सत्त ।
____-पंधसंग्रह ३४६ (शेष अगले पृष्ठ पर देखें)