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पंचम कर्मग्रन्थ
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जिस वेद के उदय से श्रीणि आरोहण करता है, उसका क्षपण अन्त में होता है।
वेद के क्षपण के बाद संज्वलाट क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षपण उक्त प्रकार से करता है। यानी संज्वलन क्रोध के तीन खण्ड करके दो खंडों का तो एक साथ क्षपण करता है और तीसरे खंड को संज्वलन मान में मिला देता है। इसी प्रकार मान के तीसरे खंड को माया में मिलाता है और माया के तीसरे खण्ड को लोभ में मिलाता है । प्रत्येक के क्षपण करने का काल अन्तमुहर्त है और श्रेणि काल अन्तमुहूर्त है किन्तु वह अन्तमुहूर्त बड़ा है।
संज्वलन लोभ के तीन खंड करके दो खण्डों का तो एक साथ क्षपण करता है किन्तु तीसरे खण्ड के संख्यात' खण्ड करके चरम खंड के सिवाय शेष खंडों को भिन्न-भिन्न समय में खपाता है और फिर उस चरम खंड के भी असंख्यात खंड करके उन्हें दसवें गुणस्थान में भिन्नभिन्न समय में खपता है । इस प्रकार लोभ कषाय का पूरी तरह क्षय होने पर अनन्तर समय में क्षीणकषाय हो जाता है । क्षीणकषाय गुणस्थान के काल के संख्यात भागों में से एक भाग काल बाकी रहने तक मोहनीय के सिवाय शेष कर्मों में स्थितिघात आदि पूर्ववत् होते हैं। उसमें पांच ज्ञानाबरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय और दो निद्रा (निद्रा और प्रचला) इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति को क्षीणकषाय के काल के बराबर करता है किन्तु निद्राद्विक की स्थिति को एक समय
स्त्रीवंद के उदय मे अणि चढ़ने पर पहले नपु मक वेद का क्षय होता है, फिर स्त्रोवेद का और फिर पुष्पवेद प हान्यादि षट्क का क्षय होता है । नपुसक वेद के उदय से अणि चढने पर नपुसक वेद और स्त्रीबंद का एक साथ आय होता है. उसके बाद पुरुषवेद और हास्यषट्क का क्षय होता है। __ गो० फर्मकांड गा० ३८८ में भी यही क्रम बताया है।