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पंचम कर्म ग्रन्थ
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इसके बाद अनिवृत्तिकरण गुणस्थान होता है । उसमें भी पूर्ववत् स्थितिघात आदि बार्य होते हैं। अनिवृत्तिकरण के असंख्यात भाग बीत जाने पर चारित्रमोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों का अन्तरकरण करता है । जिन कर्मप्रकृतियों का उस समय बंध और उदय होता है उसके अन्तरकरण संबन्धी दलिकों को प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति में क्षेपण करता है। जैसे कि पुरुषवेद के उदय से अणि चढ़ने वाला पुरुषवेद का । जिन कर्मों का उस समय केवल उदय ही होता है और बंध नहीं होता है, उनके अन्तरकरण संबन्धी दलिकों को प्रथम स्थिति में ही क्षेपण करता है, द्वितीय स्थिति में नहीं । जैसे कि स्त्रीवेद के उदय से श्रेणि चड़ने वाला स्त्रीवेद का । जिन कर्मों का उदय नहीं होता किन्तु उस समय केवल बंध ही होता है, उनके अन्तरकरण सम्बंधी दलिकों का द्वितीय स्थिति में क्षेपण करता है, प्रथम स्थिति में नहीं | जैसे कि संज्वलन क्रोध के उदय से श्रोणि चढ़ने वाला शेष संज्वलन कषायों का, किन्तु जिन कमों का न तो बंध ही होता है और न उदय हो, उनके अन्तरकरण मंचन्धी दलिकों का अन्य प्रकृतियों में क्षेपण करता है। जैसे कि द्वितीय और तृतीय कषाय का।
उक्त चतुभंगी का स्पष्टीकरण इस प्रकार है--
१. जिन कर्मों का उस समय बंध और उदय होता है, उनके दलिकों को प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति में क्षेपण किया जाता है।
२. जिन कर्मों का उस समय उदय ही होता है, उनको प्रथम स्थिति में ही क्षेपण किया जाता है।
३. जिन कर्मों का उस समय बंध ही होता है, उनके दलिकों को द्वितीय स्थिति में क्षेपण किया जाता है।
४. जिन कर्मों का न तो उदय और न बंध ही होता है, उनके दलिकों को अन्य प्रकृतियों में क्षेपण किया जाता है ।