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पंचम कर्मयन्थ
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उपशम श्रीणि में भी अनन्तानुबन्धी आदि का उपशम किया जाता है । अतः ऐसी दशा में पुनः उपशम श्रणि में उनका उपशम बतलाने का कारण यह है कि वेदक सम्यक्त्व, देशचारित्र और सकलचारित्र की प्राप्ति उक्त प्रकृतियों के क्षयोपशम से होती है । अतः उपशम श्रेणि का प्रारंभ करने से पहले उन्म तहतियों का योगगन माता है कि उपशम । इसीलिये उपशम श्रेणि में अनन्तानुबन्धी आदि के उपशम को बतलाया है। उपशम और क्षयोपशम में अन्तर ।
इसी प्रसंग में उपशम और क्षयोपशम का स्वरूप भी समझ लेना चाहिये। क्योंकि क्षयोपशम उक्ष्य में आये हुए कर्मदलिकों के भय और सत्ता में विद्यमान कमाँ के उपशम से होता है । परन्तु क्षयोपशम की इतनी विशेषता है कि उसमें घातक क्रमों का प्रदेषोदय रहता है और उपशम में किसी भी तरह का उदय नहीं होता है अर्थात् न तो प्रदेशोदय और न रसोदय । क्षयोपशम में प्रदेशोदय होने पर भी सम्यक्त्व आदि का घात न होने का कारण यह है कि उदय दो प्रकार का है—फलोदय और प्रदेशोदय । लेकिन फलोदय होने से गुण का धात होता है और प्रदेशोदय के अत्यन्त मंद होने से गुण का धात नहीं होता है । इसीलिये उपशम श्रोणि में अनन्तानुबन्धी आदि का फलोदय और प्रदेशोदय रूप दोनों प्रकार का उपशम माना जाता है ।
उपशम श्रेणि का प्रारम्भक माने जाने के सम्बन्ध में मतान्तर भी है । कई आचार्यों का कहना है कि अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत में से कोई एक उपशम श्रेणि चढ़ता है और कोई सप्तम गुणस्थानवी जीव को आरम्भक मानते हैं ।
इस मतभिन्नता का कारण यह है कि जो आचार्य दर्शनमोहनीय ___ के उपशम से अर्थात् द्वितीय उपशमसम्यक्त्व के प्रारम्भ से ही उपशम