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तत्तो व दंसणत्तिगं सरेऽणुष्णं जहन्नरवेयं । ततो बीयं धक्कं तओ य वेयं समुषिन्नं ॥
अर्थात् अनन्तानुबधा को उपशमना के पश्चात् दर्शनांतक का उपशम करता है, उसके बाद अनुदीर्णं दो वेदों में से जो वेद हीन होता है, उसका उपशम करता है। उसके बाद दूसरे वेद का उपशम करता है । उसके बाद हास्यादि पट्क का उपशम करता है और तत्पश्चात जिस वेद का उदय होता है, उसका उपशम करता है ।
कर्मप्रकृति उपशमनाकरण गा० ६५ में इस क्रम को इस प्रकार बतलाया है कि-
उदयं परिजय इस्मी इरिथं समद्ध अर्थया प्त । तह वरिषरो बरिसवरिस्थिं समगं कमार ॥
यदि स्त्रो उपशमणि पर बढती है तो पहले नपुंसकवेद का उपराम करती है, उसके बाद चरम समय मात्र उदय स्थिति को छोड़कर स्त्रीवेद के शेष सभी दलिकों का उपशम करती है। उसके बाद अबे - कफ होने पर पुरुषवेद आदि सात प्रकृतियों का उपशम करती है। यदि नपुंसक उपश्रम आणि पर चढ़ता है तो एक उदय स्थिति को छोड़कर शेष नपुंसक वेद का तथा स्त्रोवेद का एक साथ उपशम करता है । उसके बाद अवेदक होने पर पुरुषवेद आदि सात प्रकृतियों का उपशम करता है । '
उपशमणि का आरंभक सप्तम गुणस्थानवर्ती जीब है और अनंतानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, मिथ्यात्व और सभ्यमिध्यात्व का उपशम करने पर सातवां गुणस्थान होता है । क्योंकि इनके उदय होते हुए सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
१ लब्धिसार में भी फर्म प्रकृति के अनुरूप ही विधान किया गया है। देखो
गाथा ३६१, ३६२ ।