Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
३७६
घातक
इस प्रकार से अनन्तानुबंधी कषाय और दर्शनत्रिक का उपशमन करने के बाद वारितमोहनीय के उपशम का क्रम प्रारंभ होता है ।
चारित्रमोहनीय का उपशम करने के लिये पुनः वावृत्त आदि तीन करण करता है। लेकिन इतना अंतर है कि सातवें गुणस्थान में यथाप्रवृत्तकरण होता है, अपूर्वकरण अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में तथा अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान में होता है । यहां भी स्थितिघात आदि कार्य होते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि चौथे से सातवें गुणस्थान तक जो अनुकरण और निवृतिकरण होते हैं, उनमें उसी प्रकृति का गुणसंक्रमण होता है जिसके संबन्ध में वे परि णाम होते हैं । किन्तु अपूर्वकरण गुणस्थान में संपूर्ण अशुभ प्रकृतियों का गुणसंक्रम होता है ।
·
अपूर्वकरण के काल में से संख्यातवां भाग बीत जाने पर निद्राद्विक – निद्रा और प्रचला का वैधविच्छेद होता है। उसके बाद और काल बीतने पर सुरद्विक, पंचेन्द्रियजाति आदि तीस प्रकृतियों का तथा अंतिम समय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा का बंधविच्छेद होता है ।"
मुहूर्त प्रमाण करता है । उपशमन करके प्रमत्त तथा अप्रयत्त गुणस्थान में हजारों बार आवागमन करके चारित्रमोहनीय की उपशामना के लिये यथाप्रवृत्त व्यादि तीन करण करता है। तीसरे अनिवृत्तिकरण को विशेषता का कथन आगे की गाथाओं में किया गया
१ अपूर्वकरण गुणस्थान में बंध विच्छिन्न होने वाली प्रकृतियां इस प्रकार हैंअडवन अपुच्वाइमिनिदुगंतो छपन्न पण भागे सुरदुग पणिदि सुखगइ तसनव उरलविणु तवंगा || समचउर निमिण जिण वण्ण अगुरुलहुबउ फलंसि तीसतो | चरमे छवीसबंध हासर कुच्छ भयमेओ ।
- द्वितीय कर्मग्रन्थ गा० ६० १०
T