Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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३५.
शतक से एक-एक प्रकृति के असंख्यात भेद हो जाते हैं। जैसे कि शास्त्रों में भवधिज्ञान के बहुत भेद बतलाये हैं, जिससे अवधिज्ञानावरण के बंध के भी उतने ही भेद होते हैं, क्योंकि बंध की विचित्रता से ही क्षयोपश्रम में अन्तर पड़ता है और क्षयोपशम में अन्तर पड़ने से ही ज्ञान के अनेक भेद होते हैं । इसका स्पष्टीकरण यह है कि जैसे सुक्ष्म पनक जीव के तीसरे समय में जितनी जघन्य अवगाहना होती है, उतना ही जघन्य अवधिज्ञान का क्षेत्र होता है और असंख्यात लोक प्रमाण उत्कृष्ट क्षेत्र है । अतः जघन्य क्षेत्र से लेकर एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट अवधिज्ञान के क्षेत्र तक क्षेत्र की हीनाधिकता के कारण अवधिज्ञान के असंख्यात भेद हो जाते हैं। इसीलिये अवधिज्ञान के आवारक अवधिज्ञानावरण कर्म के भी बंध और उदय की विचिन्नता से असंख्यात भेद हो जाते हैं। इसी तरह नाना जीवों की अपेक्षा से कर्मों की अन्य उत्तर प्रकृतियों व मूल प्रकृतियों के भी बंध व उदय की विचित्रता से असंख्यात भेद समझना चाहिये ।
जीवों के अनन्त होने के कारण उनके बंधों और उदयों की विचित्रता से प्रकृतियों के अनन्त भेद मानने की आशंका नहीं करना चाहिये । क्योंकि नाना जीवों के भी एक-सा बंध व उदय होने से वह एक ही माना जाता है किन्तु प्रकृतियों के विसदृश भेद असंख्यात ही होते हैं । अतः योमस्थानों से प्रकृतियां असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि एकएक योगस्थान में वर्तमान नाना जीव या कालक्रम से एक ही जीव इन सब प्रकृतियों का बंध करता है।
प्रकृतिभेदों से असंख्यातगुणे स्थिति के भेद हैं, क्योंकि एक-एक प्रकृति असंख्यात प्रकारों की स्थिति को लेकर बंधती है । जैसे कि एक जीव एक ही प्रकृति को कभी अन्तमुहूर्त की स्थिति के साथ बांधता है, : कभी एक समय अधिक अन्तमुहूर्त की स्थिति के साथ बांधता है,