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पंचम कर्मग्रन्थ
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उपशमणि
अणवंसनपुसित्थीवेयछक्कं च पुरिसवेयं च । दो वो एगंतरिए सरिसे सरिसं उसमे ॥६॥
शब्दार्थ-अणवसनपुसिस्थोवेय- अनंतानुबंधी कषाय, दर्शनमोहनीय, नपुसक वेद, स्त्रीवेद, छया--हास्पादि पटक, च-तषा, पुरिसदेयं -- पुरुष वेद, और, दो दो-दो दो, एगरिए -एक एक के अन्तर से, सरिसे सरिसं-सदृश एक जैसी, उसमेह-उपशमित करता है।
गायार्य-(उपशमश्रोणि करने वाला) पहले अनंतानुबंधो कषाय का उपशम करता है, अनन्तर दर्शन मोहनीय का
और उसके पश्चात् क्रमशः नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हास्यादि षट्क व पुरुषवेद और उससे बाद एक-एक (संज्वलन) कषाय का अन्तर देकर दो-दो सदृश कषायों का एक साथ उपशम करता है।
विशेषायं-आठवें गुणस्थान से दो श्रेणियां प्रारंभ होती हैउपशमणि और क्षपकोणि ।
नथकार ने गाथा में उपशमणि का स्वरूप स्पष्ट किया है कि उपशमणि के आरोहक द्वारा किस प्रकार प्रकृतियों का उपनम किया जाता है। संक्षेप में उपशमणि का स्वरूप इस प्रकार है कि जिन परिणामों के द्वारा आत्मा मोहनीय कर्म का सर्वश्रा उपशमन करता है, ऐसे उत्तरोत्तर वृद्धिगत परिणामों की धारा को उपशमणि कहते हैं। इस उपशमणि का प्रारम्भक अप्रमत्त संयत ही होता है और उपशमणि से गिरने वाला अप्रमत्त संयत, प्रमत्त संयत, देशविरति या अविरति में से भी कोई हो सकता है। अर्थात् गिरने वाला अनुक्रम से चौथे गुणस्थान तक आता है और