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शतक
वहां से गिरे तो इसरे और उससे पहले गुणस्थान को भी प्राप्त करता है।
उपशमणि के दो भाग हैं-(१) उपशम भाव का सम्यक्त्व और (२) उपशम भाव का नारित्र ! इनमें से मारित्र मोहनीय का उपशमन करने के पहले उपशम भाव का सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान में ही प्राप्त होता है। क्योंकि दर्शन मोहनीय की सातों प्रकुतियों को सात में ही उपशमित किया जाता है, जिससे उपशमश्रोणि का प्रस्थापक अप्रमान संयत ही है। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों का मंतव्य है कि अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त या अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती कोई भी अनंतानुबंधी कषाय का उपशमन करता है और दर्शनविक आदि को तो संयम में वर्तने वाला अप्रमत्त ही उपशमित करता है । उसमें सबसे पहले अनंतानुबंधी कपाय को उपशान्त किया जाता है और दर्शनत्रिक का उपशमन तो मंचमी ही करता है । इस अभिप्राय के अनुसार चौथे गुणस्थान से उपशम अंणि का प्रारम्भ माना जा सकता है। ____ अनंतानुबंधी कपाय के उपशमन का वर्णन इस प्रकार है कि चौथे से लेकर मात राणम्थान तक में से किसी एक गुणस्थानवी जीव अनंतानुबंधी कपाय का उपशमन करने के लिये यथाप्रवृत्तकरण, अपुर्वकरण और अनियुक्तिकरण नामक तीन करण करता है | यथाप्रवृत्तकरण में प्रतिम मय उत्तरोत्तर अनंतगुणी विशुद्धि होती है। जिसके कारण शुभ प्रकृतियों में अनुभाग को वृद्धि और अशुभ प्रकृतियों में अनुभाग की हानि होती है। किन्तु स्थितिघात, रसधात, - गुणश्रेणि या गुणसंक्रम नहीं होता है, क्योंकि यहां उनके योग्य विशुद्ध परिणाम नहीं होते हैं। यथाप्रवृत्तकरण का काल अन्तमुहूर्त है ।
उक्त अन्तमुहूर्त काल समाप्त होने पर दूसरा अपूर्वकरण होता है। इस करण में स्थितिघात, रसघात, गुणाणि, गुणसंक्रम और