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शतक
प्रतर का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । सात राजू लम्बी आकाश के एक-एक प्रदेश की पंक्ति को श्रेणि' कहते हैं। जहां कहीं भी श्रेणि के असंपातवें भाग का कथन किया जाये, वहां इसी श्रेणि को लेना चाहिये ।
श्रेणि के वर्ग को प्रतर कहते हैं अर्थात् अणि में जितने प्रदेश हैं, उनको उतने ही प्रदेशों से गुणा करने पर प्रतर का प्रमाण आता है । समान दो संख्याओं का आपस में गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न होती है, वह उस संख्या का वर्ग कहलाता है । जैसे ७ का ७ से गुणा करने पर उसका वर्ग ४६ होता है । अथवा सात राजू लम्बी और सात राजु चौड़ी एक-एक प्रदेश की पंक्ति को प्रतर कहते हैं |
प्रतर (वर्ग) और श्रेणि को परस्पर में गुणा करने पर घन का प्रमाण होता है । अर्थात् समान तीन संख्याओं का परस्पर गुणा करने पर घन होता है। जैसे ७४७४.. . यह क' घन होता है।
इस प्रकार श्रेणि, प्रतर और धन लोक का प्रमाण समझना चाहिये।
प्रदेशबंध का सविस्तार वर्णन करने के साथ प्रथकार द्वारा 'नमिय जिणं धुवबंधा' आदि पहली गाथा में उल्लिखित विषयों का वर्णन किया जा चुका है । अब उसी गाथा में 'य' (च) शब्द से जिन उपशमश्रोणि, क्षपकणि का ग्रहण किया गया है, अब उनका वर्णन करते हैं । सर्व प्रथम उपशमणि का कथन किया जा रहा है। १ त्रिलोकसार गाया ७ में राजू का प्रमाण श्रेणि के सातवें भाग बतलाया है
'नगसेढिसत्तभागो रज्जु ।' तथा द्रव्यलोकप्रकाश में प्रमाणांगुल से निष्पन्न असत्यात कोटि-कोटि योजन का एक राज़ बतलाया है-प्रमाणांगुलनिष्पन्नयोजनानां प्रमाणत: । असंख्यकोटीकोटीभिरेकारमुः प्रकीर्तिता ।।
सर्ग श६४1 २ लोकमज्यादारभ्य ऊरमधस्तियंक च आकाशदेशानां क्रमसनिविष्टाना पमितः श्रेणिः ।
–सपिसिक