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सतक
लागे ताद अब सामन्यले उत्तुर और जना प्रदेशबंध के स्वामी बतलाते हैं।
अप्पयरपडियंघो उक्फ बोगो य सनिपज्जत्तो। कुणइ पएसुक्कोसं महलयं तस्स बचासे ॥६॥
शब्दार्थ-अप्पयरपश्बिंधी-अल्पतर प्रकृतियों का बंध करने वाला, उपकरणोगी-उत्कृष्ट योग का धारक, 4-और, सनिपश्यसो- संझी पर्याप्त, कुणह--करता है, पएसुक्कोसं--प्रदेशों का उत्कृष्ट बंध, जहन यं --जघन्य प्रदेशबंध, सस्स-उसका, बच्चाले–विपरीतता से ।
गापार्ष-अल्पतर प्रकृतियों का बंध करने वाला उत्कृष्ट योग का धारक और पर्याप्त संजी जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है तथा इसके विपरीत अर्थात् बहुत प्रकृतियों का बंध करने वाला अधन्य योग का धारक अपर्याप्त असंशी जीव जघन्य प्रदेशबंध करता है। विशेषार्थ--इस गाथा में उत्कृष्ट प्रदेशबंध और जघन्य प्रदेशबंध करने वाले का कथन किया गया है। जो मूल और उत्तर प्रकृतियां अल्प बांधे वह उत्कृष्ट प्रदेशबंश्च करता है । क्योंकि कर्मप्रकृतियों के अल्प होने से प्रत्येक प्रकृति को अधिक प्रदेश मिलते हैं । इसीलिये अल्पतर प्रकृति का बंधक और उत्कृष्ट योग का धारक ऐसा संज्ञी पर्याप्त जीव उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है और इससे विपरीत स्थिति में यानी अधिक प्रकृतियों को बांधने वालों के कर्मदलिकों को अधिक भागों में (प्रकृतियों में) विभाजित हो जाने से प्रत्येक को अल्प प्रदेश मिलते हैं । इसीलिये अधिक प्रकृतियों का बंधक और मंद योग वाला असंही अपर्याप्त जीव जघन्य प्रदेशबंध करता है। इसका स्पष्टीकरण नीचे लिखे अनुसार है ।