Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 378
________________ पंचम कर्मग्रन्थ पण अनियट्टी सुखाइ नराउसुरसुभगतिविवियुग । समच उरसमसाय बदरं मिनछो छ सम्मो बा || निद्दापयलादुजुयलभय कुच्छातित्य सामगो सुजई। आहारदुगं सेसा उस्कोसपएसगा मिच्छो ॥२॥ शब्दार्थ - पण - पांच {पुरुपवेद और संज्वलन चतुष्प.) भनियट्टी-अनिवृत्तिबादर गुणस्थान वाला, सुषगा--शुभ विहायोगनि, नराउ -मनुष्यायु, सुरसुमगतिग –देवत्रिक और सुभगत्रिक, विधि. सुगं ..क्रिय द्विक, समचउरसं-समचतुरस संस्थान, असायं-. असातावेदनीय, वारं - दन ऋपभनाराच संहनन, मिच्यो-मिथ्यादृष्टि व- अथवा, सम्मो-सम्यग्दृष्टि, या अथवा । निद्दापयला -निद्रा और प्रचला, दुमुयल-दो युगल, भयकुन्छातित्य-भय, जुगुप्सा और तीर्थकर नामकर्म, सम्मगोसम्यग्दृष्टि, सुजाई -- अप्रमत्त यनि और अपूर्वकरण गुणस्थान वाला, आहारसुगं--आहारकदिक का, सेसा–बाकी की प्रकृतियों का, उकोसपएसगा -उत्कृष्ट प्रदेशबंध, मिच्यो-मिथ्याष्टि (करता है)। ___ गाथार्थ-अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में पांच (पुरुषवेद, संञ्चलन चतुष्क) प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है । शुभ विहायोगति, मनुष्यायु, देवत्रिक, सुभगत्रिक, वैक्रियहिक, समचतुरस्रसंस्थान, असातावेदनीय, वजऋषभनाराच संहनन, इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्या दृष्टि जीव करते हैं । निद्रा, प्रचला, दो युगल (हास्य-रति और शोक-अरति), भय, जुगुप्सा, तीर्थकर, इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं | आहारकद्विक का उत्कृष्ट

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