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पंचम कर्मग्रन्थ
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शब्दार्थ-मिछ- मियादृष्टि, अजयचउ –अविरत सम्यम् हदि आदि चार गुणस्थान वाले, आम-आयु कर्म का, वितिगुणविणु - दूसरे और तीसरे गुणस्थान के बिना, मोहि-मोहनीय कर्म का, सत्त-सात गुणस्थान वाले, मिलाई मिथ्यात्वादि, छह-छह मूल प्रकृतियों का, सतरस सत्रह प्रकृतियों का सहमी - सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान बाला, अममा विरत सम्मास्टरित सा-गविरति, रितिकसाय—दूसरी और नीरो कषाय का।
गाथार्थ-मिथ्या दृष्टि और अविरत आदि चार गुणस्थान बाले आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध करते हैं । दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय मिथ्यात्व आदि सात गुणस्थान वाले मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध तथा शेष छह कमों और उनकी सत्रह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबंध सूक्ष्म मंपराय गुणस्थान नामक दसवें गुणस्थान में रहने वाले करते हैं। द्वितीय कपाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध अविरत सम्यग्दृष्टि जीव तथा तीसरी कषाय का उत्कृष्ट प्रदेशबंध देशविरति वारते हैं। विशेषार्थ-..इस गाथा में मूल नवा कुछ उपर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध के ग्वामियों को बतलाया है। __ मर्व प्रथम मूल कर्मों में से आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध बतलाते हुए कहा है - मिच्छ अजयत्रउ आऊ'- पहले मिथ्यात्व मुगुणस्थान वाले और अविरत चतुष्क अर्थात् चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि, पांचवें देशविरति, छठे प्रमत्तविरत और सातवं अप्रमत्नाविरत, यह पांच गुणस्थान वाले जीव करते हैं। शेष गुणस्थानों में आयुकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबंध न बतलाने का कारण यह है कि तीसरे और आठवें आदि गुणस्थानों में तो आयुकर्म का बंध होता ही नहीं है। यद्यपि दूसरे गुणस्थान में आयुकर्म का बंध होता है, किन्तु यहाँ उत्कृष्ट