Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
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बराबर होता है । अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल का एक पुद्गल परावर्त होता है ।
पुद्गल परावर्त के है' ने भाने तरह यानी द्रव्यपुद्गल परावर्त, क्षेत्रपुद्गल परावर्त, कालपुद्गल परावर्त और भावपुद्गल परावर्त । इन चारों भेदों में से प्रत्येक के बादर और सूक्ष्म यह दो भेद होते हैं दुह बायरो सुमो । अर्थात् पुद्गलपरावर्त का सामान्य से काल अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी प्रमाण है और द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव ये चार मूल भेद हैं। ये मूल भेद भी प्रत्येक सूक्ष्म, बादर के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। जिनके लक्षण नीचे स्पष्ट करते हैं । सर्वप्रथम बादर और सूक्ष्म द्रव्यपुद्गल परावर्त का स्वरूप बतलाते हैं ।
द्रव्यपुद्गल परावर्त - पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि अनेक प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं से लोक भरा हुआ है और उन वर्गणाओं में से आठ प्रकार की वर्गणायें ग्रहणयोग्य हैं यानी जीव द्वारा ग्रहण की जाती हैं और जीव उन्हें ग्रहण कर उनसे अपने शरीर, मन, वचन आदि की रचना करता है। ये वर्गणायें हैं
१ ओदारिक ग्रहणयोग्य वर्गणा, २ वैक्रिय ग्रहणयोग्य वर्गणा, ३ आहारक ग्रहणयोग्य वर्गणा, ४ तेजस ग्रहणयोग्य वर्गणा, ५ भाषा ग्रहणयोग्य वर्गणा, ६ श्वासोच्छ्वास ग्रहणयोग्य वर्गणा, ७ मनो ग्रहणयोग्य वर्गणा, कार्मण ग्रहणयोग्य वर्गणा । इन वर्गणाओं में से जितने समय में एक जीव समस्त परमाणुओं को आहारक ग्रहणयोग्य वर्गणा को छोडकर शेष औदारिक, वैक्रिय, तेजस, भाषा, आनप्राण, मन और कार्मण शरीर रूप परिणमाकर उन्हें भोगकर छोड़ देता