________________
परम कर्मरन्य
इन गुणश्रेणियों' का यदि गुणस्थान के क्रम से विभाग किया __ जाये तो उनमें चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के सभी
गृणस्थान तथा सम्यक्त्वप्राप्ति के अभिभुख मिथ्यादृष्टि भी संमिलित हो जाते हैं । विशुद्धि की वृद्धि होने पर ही चौथे, पांचवें आदि गुणस्थान होते हैं । अतः आगे-आगे के गुणस्थानों में जो उक्त गुणश्रेणियां होती हैं, उनमें अधिक-अधिक विशद्धि होना स्वाभाविक है । ___इस प्रकार गुणश्रेणियों के ग्यारह स्थानों को बतलाकर अब आगे की माथा में गुणश्रेणी का स्वरूप तथा गुणश्रणियों में होने वाली निर्जरा का कथन करते हैं।
गुणसेही बलरयणाऽणुसमयमुश्यारसंखगुणणाए। एयगृणा पुण कमसो असंखगुणनिजरा जीवा ।।३।।
शब्दार्थ-गुणसेती-गुणाकारप्रदेशों की रचना, बलरपणाऊपर की स्थिति से उतरते हुए प्रदेशाग्र की रचना, अगसमय.... प्रत्येक समय की, उदयाद-उदम क्षण से, असंखगुणणाए---असख्य गुणना से, एमगुणा—ये पूर्वोक्त गुण बाले, पुण–पुनः, समसो
१ (क) तत्वार्थसूत्र ६।४५ में गुणणियों के नाम इस प्रकार बतलाये हैं --
सम्बाहष्टिनावकविरतानन्तवियोजकदर्शन मोहनपकोपशमकोपशान्तमोदृक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येय गुणनिराः ।
इसमें मयोगि. अयोगि केवली के स्थान पर सिर्फ 'जिन' को रखा और टीकाकागं ने उसे एक ही स्थान गिना है। (ख) स्वामी कातिकेयानृप्रेक्षा में सयोगि और अोगिको गिनाया
अवगो य खीणमोहो सोइणाहो तहा अजोईया | एदे उरि उमरि असंखगुणकम्मणिज्जरया ।।१०।।
किन्तु इसको संस्कृत टीका में केवली और समृद्घात केवलो को गिनामा है और 'अषोईमा' को उन्होंने छोड़ दिया है।