Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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अनुक्रम से, असंखगुणनिजमरा असंख्यात गुण निरा वाले, जीपा-जीव ।
गापार्ष-ऊपर की स्थिति से उदय क्षण से लेकर प्रतिसमय असंख्यातगुणे, असंख्यातगुणे कर्मदलिकों की रचना को गुणश्रोणि कहते हैं तथा पूर्वोक्त सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति आदि गुण वाले जीव अनुकम से असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निर्जरा करते है ।
विशेषार्थ--गाथा के पहले चरण में गुणश्रीणि का स्वरूप और दूसरे चरण में पूर्व गाथा में बतलाये गये गुणधीणि वाले जीवों के कर्मनिर्जरा का प्रमाण बतलाया है।
पूर्व में जो सम्यक्त्व, देशविरति आदि ग्यारह नाम बतलाये हैं वे । तो स्वयं गुणणि नहीं हैं किन्तु उन उनमें क्रम से असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निर्जरा होने से गुणश्रोणि के कारण हैं । अतः करण में कार्य का उपचार करके उन्हें गुणणि कहा जाता है। गुणश्रोणि तो एक क्रियाविशेष है जो इस गाथा में बतलाई गई है-गुणसेढी दलरयणा .."। ___ इस क्रिया का प्रारम्भ सम्यक्त्व प्राप्ति से होता है। अतः सर्वप्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बारे में विचार करते हैं। पहले यह बताया जा चुका है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए जोव यथाप्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तीन करणों को करता है। अपूर्वकरण में प्रवेश करते ही निम्नलिखित चार काम प्रारम्भ हो जाते हैं
एक स्थितिघात, दूसरा रसघात, तीसरा नवीन स्थितिबंध और चौथा गुणणि । स्थितिघात के द्वारा पहले बांधे हुए कर्मों की स्थिति को कम कर दिया जाता है। अर्थात् स्थितिघात के द्वारा उन्हीं दलिकों की स्थिति कामात किया जाता है जिनकी स्थिति एक अन्त