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मातक
हो। दर्शनमोहनीय की क्षपणा का क्रम भी अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना जैसा है । यहां भी पूर्ववत् तीन करण होते हैं और अपूर्व करण में गुणौणि आदि कार्य होते हैं ।
उपशम धेणि का आरोहण करने वाला जीव भी यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है, लेकिन इतना अंतर है कि यथाप्रवृत्तकरण सातवें गुणस्थान में करता है, अपूर्वकरण-अपूर्वकरण नामक गुणस्थान में और अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिकरण नामक गुणस्थान में करता है। यहां भी पूर्ववत् स्थितिघात गुणश्रेणि आदि कार्य होते हैं । अतः उपशमक भी क्रम से असंख्यातगुणी, असंख्यातगुणी निर्जरा करता है।
चारित्रमोहनीय का उपशम करने के बाद उपशांतमोह नामक ग्यारहवे गुणस्थान में पहुँचकर भी जीव गुणश्रेणि रचना करता है। उपशान्तमोह का काल अन्त मुहूर्त है, और उसके संख्यातवें भाग काल में गुणश्रेणि की रचना होती है, जिससे यहां पर भी जीव प्रतिसमय असंख्यातगुणी, असंख्यातगृणी निर्जरा करता है । __ग्यारहवें गणस्थान से च्युत "होकर जब जीव छठे गुणस्थान तक आकर क्षपक श्रेणि चढ़ता है अथवा उपशमणि पर आरूढ़ हुए बिना ही सीधा क्षपक श्रेणि पर चढ़ना है तो वहां भी यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृतिकरण, इन तीनों करणों को करता है और उनमें उपशमक और उपशान्तमोह गुणस्थान से भी असंख्याप्तगुणी निर्जरा करता है । इसी प्रकार क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली नामक गुणश्रेणियों भी उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी, असंख्यातगणी निर्जरा समझना चाहिए। ___ इन ग्यारह गुणश्रेणियों में से प्रत्येक का काल अन्तमुहत-अन्तमुहूर्त होने पर भी प्रत्येक के अन्तमुहूर्त का काल उत्तरोत्तर हीन होता है तथा निर्जरा द्रष्य का परिमाण सामान्य से असंख्यातगुणा, असंख्यात