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का कर्मग्रन्थ
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है कि-उत्सेधांगुल' के द्वार, विष्णन एक गोला माण नया, एक योजन प्रमाण चौड़ा और एक योजन प्रमाण गहरा एक गोल पल्यगढ़ा बनाना चाहिए, जिसकी परिधि कुछ कम ३१ योजन होती है । एक दिन से लेकर सात दिन तक के उगे हुए बालायों से उस पल्य को इतना ठसाठस भर देना चाहिये कि न आग उन्हें जला सके, न वायु उड़ा सके और न जल का ही उसमें प्रवेश हो सके । इस पल्य से प्रति समय एक-एक बालान निकाला जाये । इस तरह करते-करते जितने समय में वह पल्यखाली हो जाये, उस काल को बादर उद्धारपल्य' कहते हैं। ____दस कोटाकोटी बादर उद्धारपल्योपम का एक बादर उद्धारसागरोपम होता है ।
इन बादर उद्धारपल्योपम और बादर उद्धारसागरोपम का इतना ही प्रयोजन है कि इनके द्वारा सूक्ष्म उद्धारपल्योपम और सूक्ष्म उद्धारसागरोपम सरलता से समझ में आ जाये
अस्मिम्मिरूपिते सूक्ष्मं सुबोधमयुधरपि । असो निरूपितं नान्यरिकञ्चिदस्य प्रयोजनम् ।।- द्रव्यलोकप्रकाश १।८६
अंगुल के तीन भेद हैं—आस्मांगुल, उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुण । इनकी
व्याख्या आगे की गई है। २ पल्म को बालारों से भरने संबन्धी अनुयोगद्वार सूत्र आदि का विवेचन
परिशिष्ट में दिया गया है। ३ पल्य को ठसाठस भरने के संबन्ध में द्रव्यलोकप्रकाश सग १५८२ में स्पष्ट किया है
तथा च चक्रिसन्येन तमाक्रम्य प्रसप्ता।
न मनाक क्रियते नीचरेवं निबिड़तागताम् ॥
वे केशान इतने बने भरे हुए हों कि यदि चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाये तो वे जरा भी नीचे न हो सके।