Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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और जह तह - जिस किसी मरगंगं-मरण के द्वारा, पुट्ठा यूलियरा -- स्थूल (बादर) और
लोगपएसा-लोक के प्रदेश, उसपिणिमा उत्सर्पिणीअवसर्पिणी के समय, अनुभागबंधठाणा - अनुभाग बंध के स्थान भी प्रकार से कम - अनुक्रम से, स्पर्श किये हुए, खिसाइ - क्षेत्रादिक, सूक्ष्म पुद्गल परावर्त ।
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गाथार्थ - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार वाले पुद्गल परावर्त के बादर और सूक्ष्म, ये दो-दो भेद होते हैं । यह पुद्गल परावर्त अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल के बराबर होता है ।
जितने काल में एक जीव समस्त लोक में रहने वाले समस्त परमाणुओं को औदारिक शरीर आदि सात वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने काल को बादर द्रव्यपुद्गल परावर्त कहते हैं और जितने काल में समस्त परमाणुओं को औदारिक शरीर आदि सात वर्मणाओं में से किसी एक वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने काल को सूक्ष्म द्रव्यपुद्गल परावर्त कहते हैं ।
शतक
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एक जीव अपने मरण के द्वारा लोकाकाश के समस्त प्रदेशों, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समय तथा अनुभाग बंध के स्थानों को जिस किसी भी प्रकार ( बिना क्रम के ) से और अनुक्रम से स्पर्श कर लेता है तब क्रमशः बादर और सूक्ष्म क्षेत्रादि पुद्गल परावर्त होते हैं ।
विशेषार्थ जैन साहित्य में प्रत्येक विषय की चर्चा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से की जाती है । इन्हीं चार अपेक्षाओं को लेकर यहां पुद्गल परावर्त का कथन किया जा रहा है । परावर्त का अर्थ है परिवर्तन, फेरबदल, उलटफेर इत्यादि । द्रव्य से यहां