Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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गतक
३१६ आगे लिखा है-'एयावयाचेव गणिए एयावया चेव गणिअस्स विसए, एत्तोऽवरं ओवमिए पत्तइ।'' अर्थात् शोषप्रहेलिका तक गुणा करने से १९४ अंक प्रमाण जो राशि उत्पन्न होती है, गणित की अवधि वहीं तक है, उतनी ही राशि गणित का विषय है। उसके आगे उपमा प्रमाण की प्रवृत्ति होती है।
उपमा प्रमाण का स्पष्टीकरण करने के लिये बालागों के उद्धरण को आधार बनाया है | पहला नाम है उद्धारपल्य, जिसका स्वरूप यह
पूर्व का एक लताग, ८४ लाख लसांग का एक लता, ८४ लाख लसा का एक महालतांग, ८४ लाख महालतांग का एक महासता, इसी प्रकार आगे मलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानलिन, पपांग,पप, महापांग, महापम, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल, कुमुदांग, कुमुद, महाकुमुदांग, महाकुमुव, त्रुटितांग, टित, महात्र टितोग, महात्रु रित, अडडांग, अड, महाअडडांग, महासरड, अहांग, कह, महामहाग, महाऊह, पोर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका । (गाथा १४-७१)
अनुयोगबारसूत्र और ज्योतिष्करण्ड में आगत नामों की भिन्नता का कारण काललोकप्रकाश में इस प्रकार स्पष्ट किया है-'अनुयोगद्वार, जम्बूद्वीपप्राप्ति आदि माथुर वाचना के अनुगत है और ज्योतिष्करंज आदि वल्मी वाचना के अनुगत, इसी से दोनों में अंतर है।
दिगम्बर ग्रन्थ तत्त्वार्थराजवार्तिक में पूर्वाग, पूर्व, नयुतांग, नयुत, कुमुदांग, कुमुद, पांग, पन, नलिनांग, नलिन, कमलांग, कमल, तुट्यांग तुट्म, अटटांग, अटट, अममांग अमम, हूहू अंग, हूहू, लतांग, लता, महालता आदि सज्ञा दी है। ये सब संज्ञा ८४ लाख को ८४ लाख से गुणा करने पर बनती हैं। इस गुणन विधि में श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थ
एक मत हैं। १ अनुयोगवार सूत्र १३७