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पंचम कर्मग्रन्य
चला जाता है । वहाँ से पुनः क्षयोपशम सम्यक्य को प्राप्त करके ६६ सागर की समाप्ति तक यदि उसने मुक्ति प्राप्त नहीं की तो वह जीव अवश्य मिथ्यात्व में चला जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अंतर दो छियासठ सागर-एकसौ बत्तीस सागर से कुछ अधिक होता है।
सासादन से लेकर उपशांतमोह गुणस्थान तक के शेष गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुदाल परावर्त है - इयरगुणे पुग्गल
तो । क्योंकि इन गुणस्थानों से पतित होकर जीव अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता रहता है और उसके बाद पुनः उसे उक्त गुणस्थानों की प्राप्ति होती है । इसीलिये इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्त माना गया है ।
क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थानों में अन्तर नहीं होने के कारण को पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि ये एक बार प्राप्त होकर पुनः प्राप्त नहीं होते हैं । यानी इन गुणस्थानों की प्राप्ति होने के बाद उनका क्षय नहीं होता है । जिससे जघन्य या उत्कृष्ट अलरकाल का विचार करने की आवश्यकता नहीं रहती है। ___इस प्रकार से गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अंतरकाल बत्तलाने के बाद अब आगे की गाथाओं में अंतरकाल के वर्णन में आगे पल्योपम, अर्धपुद्गल परावतं का स्वरूप विस्तार से बतलाते हैं । पहले पल्योपम का स्वरूप स्पष्ट करते हैं।
उद्धारमशखितं पलिय तिहा समयवाससयसमए ।
फेसवहारो वीवोहिआउनसाहपरिमाण ।।८।। १ पंचसंग्रह में भी गुणस्थानों का अन्त र इसी प्रकार का बतलाया है
पलियासंखो सासायणतरं सेसयाण मंतमुह । मिस्स बे छसट्टी इपराणं पोग्गसवतो।।५