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पंचकर्मपथ
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असंख्यातगुणी निर्जरा करता है तथा सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद भी उसका क्रम चालू रहता है। यह पहली सम्यक्त्व नाम की गुणश्रेणि है। आगे की अन्य गुणश्र ेणियों की अपेक्षा इस श्र ेणि में सम्यक्त्वप्राप्ति के समय में - मंद विशुद्धि रहती हैं अतः उनकी अपेक्षा से इसमें कम कर्मदलिकों की गुणश्र ेणि रचना होती है किन्तु उनके वेदन करने का काल अधिक होता है । परन्तु सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व की स्थिति की अपेक्षा कर्मदलिकों की संख्या अधिक और समय कम समझना चाहिये । इस सभ्यक्त्व नाम की प्रथम गुणश्रोणि को कर्मनिर्जरा का बीज कह सकते हैं ।
सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् जीव जब विरति का एकदेश पालन करता है तब देशवित नाम की दूसरी गुण णि होती है। इसमें प्रथम श्र ेणि की अपेक्षा असंख्यात गुणे अधिक कर्मदलिकों की गुणणि रचना होती है और वेदन करने का समय उससे संख्यात गुणा कम होता है ।
सम्पूर्ण विरति का पालन करने पर तीसरी गुणश्र ेणि होती है । देशविरति से इसमें अनन्त गुणी विशुद्ध होती है जिससे । इसमें पूर्व की अपेक्षा असंख्यात गुणे अधिक कर्मदशिकों की गुणश्र ेणि रचना होती है किन्तु उसके वेदन करने का समय उससे संख्यात गुणा हीन होता है।
जब जीव अनन्तानुबंधी कषाय का विसंयोजन करता है अर्थात् अनन्तानुबंधी कषाय के समस्त कर्मदलिकों को अन्य कषाय रूप परिणमाता है तब चौथी गुणश्रेणि होती है। दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों - सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व – का विनाश करते समय पांचवी दर्शनमोहनीय का क्षपण गुणश्रेणि होती है। आठवें नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय का उपशमन करते समय चारित्रमोहनीय का उपशमन नामक छठी गुणश्र णि