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अब आगे की चार गाथाओं में शेष प्रकृतियों के नाम गिनाकर उनके निरन्तर बंध के समय को बतलाते हैं ।
समयादसंखकाल तिरिदुगनीएसु आउ अंतमुह । उरलि असंखपरट्टा सार्याठई पुरुष कोणा ॥५६३ जलहिलयं पणसीय परघुस्सा से पणिवितसच उगे । बत्तोस सुविहगमसुभगांत गुच्चचरसे ॥६०॥ असुखगइजा आणि संघयणाहारनश्यओयगं । थिर सुभजस्थावर दसर पुहत्थोयलमसायं ॥ ६१॥ समयादतमुहुसं मणुदुर्ग जिणवहर उरलवंगेसु । तित्तोसयरा परमा अंतमूह लहू वि आउजिणे ॥ ६६ ॥
शब्दार्थ - समयादसंखकालं – एक समय से लेकर असंख्य काल तक, तिरियुगनोएस तियंत्रद्विक और नीचगोत्र का आज आयुकर्म का अंतमुह-मन्तर्मुहूर्त तक, उलि – औदारिक शरीर का असंख परट्टा – असंख्यात पुद्गल परावर्त, सायठिई — सातावेदनीय का बंध, पुरुषकोगा- पूर्व कोटि वर्ष से न्यून |
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जलहिलयं - एक सौ सागरोयम, पणसीयं पचासी परघुस्सा से पराघात और उच्छवास नामकर्म का पणिदि पंचेन्द्रिय जाति का, तसच चमचतुष्क का बत्तीसं - बत्तीस, मुँहविहगढ शुभ विहायोगति, पुम–पुरुष वेद, सुभगलिंग – सुभगत्रिक, उच्च – उच्चगोत्र, चउरंसे समचतुरस्रसंस्थान का ।
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असुखगद्द - अशुभ विहायोगति, जाइ एकेद्रिय आदि चतुरिन्द्रिय तक जाति, आगि संघयण - पहले के सिवाय पांच संस्थान और पांच मंहनन, आहारनरयजयदुर्ग- आहारकद्विक, नरककि, उद्योतठिक थिरसुभगस स्थिर, शुभ, यशः कौर्ति नाम,
शतक
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