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शनक
२५.२
नरकायु नहीं बांधी है वह नरक में नहीं जाता है, अतः बद्धनरकायु का ग्रहण किया है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व सहित मर कर नरक में उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु उनके विशुद्ध होने से वे तीर्थंकर प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध नहीं कर सकते हैं । इसीलिये उनका यहां ग्रहण नहीं किया है।
एकेन्द्रिय जाति और स्थावर नामकर्म का जघन्य अनुभाग बन्ध नरकगति के सिवाय शेष तिर्यच, मनुष्य और देव इन तोन गतियों के जीव करते हैं। लेकिन इन तीन गतियों वाले जीवों के संबन्ध में यह विशेष जानना कि परावर्तमान मध्यम परिणाम वाले जीव करते हैं । क्योंकि ये दोनों प्रकृतियां अशुभ हैं, अतः अति संक्लिष्ट परिणाम वाले जीव उनका उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करते हैं और अति विशुद्ध जीव पंचेन्द्रिय जाति और तस नामकर्म का बन्ध करते हैं। इसीलिये मध्यम परिणाम का ग्रहण किया है। सारांश यह है कि जब कोई जीव एकेन्द्रिय जाति और स्थावर नामकर्म का बन्ध करके पंचेन्द्रिय जाति और अस नामकर्म का बंध करता है और उनका बंध करके पुनः एकेन्द्रिय व स्थावर नामकर्म का बंध करता है तब इस प्रकार का परिवर्तन करके बंध करने वाला परावर्तमान मध्यम परिणाम वाला अपने योग्य विशुद्धि के होने पर उक्त दो प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध करता है।
आतप प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध ईशान कल्प तक के देत्रों को बतलाया है । यद्यपि गाथा में 'आसुम' पद हैं, जिसका अर्थ 'सौधर्म स्वर्ग तक' होता है । लेकिन सौधर्म और ईशान स्वर्ग एक ही श्रंणी में विद्यमान होने से दोनों को ग्रहण कर लेना चाहिये । इसका अर्थ यह हुआ कि भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और सोधर्म, ईशान स्वर्ग तक के वैमानिक देव आप प्रकृति का जघन्य अनुभांग बंध करते हैं ।
उक्त देवों के ही आतप प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध करने का