Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सबसे अधिक वेदनीय कर्म का भाग है। क्योंकि थोड़े द्रव्य के होने पर वेदनीय कर्म का अनुभव स्पष्ट रीति स नहीं हो सकता है । वेदीय की अलावा प माता कमां को अपनीअपनी स्थिति के अनुसार भाग मिलता है। विशेषार्य इस नाया में जीव द्वारा ग्रहण किये गमे कमस्कन्धों का ज्ञानावरण आदि प्रकृतियों में विभाजित होने को बतलाया है ।
जिम प्रकार भोजन के पेट में जाने के बाद कालक्रम से बह रस, रुधिर आदि रूप हो जाता है, उसी प्रकार जीव द्वारा प्रति समय ग्रहण की जा रही कर्मवर्गणायें भी उसी समय उतने हिस्सों में बंट जाती हैं जितने कर्मो का बंध उम ममय उस जोव ने किया है ।
पूर्व में यह बतलाया जा चुका है कि प्रति समय जीव द्वारा कर्मस्कन्धों का ग्रहण होता रहता है, लेकिन यह भी स्पष्ट किया है कि आवृकम का बंध सर्वदा न होकर भुन्यमान आयु के विभाग में होता है तथा वह भी अन्तमुहुर्त तक होता है । इन विभागों में भी वैध न हो तो अन्तमुहूर्त आयु मेष रहने पर अवश्य भी पर भव की आयु का बंध हो जाता है । अतः जिस समय जीव आयुकर्म का बंध करता है उस समय तो ग्रहण किये जाने वाले कर्मस्कन्ध आयुकर्म सहित ज्ञानावरण आदि आठों कर्मों में विभाजित हो जाते हैं यानी उनके आठ भाग हो जाते है और जिस समय आयु का वैध नहीं होता है, उस समय ग्रहण किये गये कमर कन्ध आयुकर्म को छोड़कर शेष झानावरण आदि सात कर्मों में विभाजित होने है ।
यह तो हुआ एक सामान्य नियम । लेकिन गुणस्थानकमारोहण के समय जब जीव दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है तब आयु और मोहनीय कर्म के सिवाय शेष छह कर्मों का बंध करता है । अतः उस समय गृहीत कर्मम्कन्ध सिर्फ छह कर्मों में ही विभाजित