Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तियों का एक समय में बंध होता है, उतने भागों में वह प्राप्त द्रव्य बंट जाता है ।
शत
उक्त प्रकृतियों में से कुछ एक के बारे में विशेषता यह है कि वर्णचतुष्क को जिग्ना जितना भाग मिलता है वह उनके अवान्तर भेदों में बंट जाता है । जैसे वर्ण नाम को मिलने वाला भाग उसके पांच भागों में विभाजित होकर शुक्ल आदि भेदों में बंट जाता है। इसी तरह गंध, रस और स्पर्श के अवान्तर भेदों के बारे में भी समझना चाहिए कि उन उनको प्राप्त भाग उनके अवान्तर भेदों में विभाजित होता है । संघात और शरीर नामकर्म को जो भाम मिलता है वह तीन या चार भागों में विभाजित होकर संघात और शरीर नाम की तीन या चार प्रकृतियों को मिलता है । संघात और शरीर नाम के तीन या चार भागों में विभाजित होने का कारण यह है कि यदि सौदारिक, तैजस और कार्मण अथवा वैक्रिय, तेजस और कार्मण इन तीन शरीरों और संघातों का एक साथ बंध होता है तो तीन भाग होते हैं और यदि वैकिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर तथा संघात का बंध होता है तो चार विभाग हो जाते हैं ।
बंधन नाम को प्राप्त होने वाले भाग के यदि तीन शरीरों का बंध हो तो सात भाग होते हैं और यदि चार शरीरों का बंध हो तो ग्यारह भाग होते हैं। सात और ग्यारह भाग इस प्रकार जानना चाहिए कि ओदारिक औदारिक, औदारिक-तैजस, औदारिकं कार्मण, औदारिकतैजस- कार्मण, तेजस तेजस, तैजस- कार्मण और कार्मण-कार्मण इन सात बंधनों का बंध होने पर सात भाग अथवा वैक्रिय- वैक्रिय, वैक्रियतेजस, वैक्रिय - कार्मण, वैक्रिय तैजस- कार्मण, तेजस तेजस, तेजस - कार्मण और कार्मण कार्मण, इन सात बंधनों का बंध होने पर सात भाग होते हैं और वैक्रियचतुष्क, आहारकचतुष्क तथा तेजस और कार्मण के तीन इस प्रकार ग्यारह बंधनों का बंध होने पर व्यारह भाग होते हैं ।