Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
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इसके सिवाय नामकर्म की अन्य प्रकृतियों में कोई अवान्तर विभाग नहीं होने से जो भाग मिलता है वह पूरा बंधने वाली उस एक प्रकृति को ही मिल जाता है। क्योंकि अन्य प्रकृतियां आपस में विरोधिनी हैं अतः एक का बंध होने पर दूसरी का बंध नहीं होता है । जैसे कि एक गति का बंध होने पर दूसरी गति का बंध नहीं होता है । इसी तरह जाति, संस्थान और संह की एक में एक सी और सदशक का बंघ होने पर स्थावरदशक का बंध नहीं होता है।
गोत्रकर्म को जो भाग मिलता है, वह सबका सब उसकी बंधने बाली एक ही प्रकृति को मिलता है, क्योंकि गोत्रकर्म की एक समय में एक ही प्रकृति बंधती है । "
इन बंधने वाली प्रकृतियों के विभाग क्रम में से जब अपने-अपने गुणस्थानों में किसी प्रकृति का बंधविच्छेद हो जाता है तो उसका भाग सजातीय प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है और यदि सजातीय
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१ वेदनीय, आयु, गोत्र और नाम फर्म के द्रव्य का बटवारा उनकी उतर प्रकृतियों में करने का क्रम कर्मप्रकृति में इस प्रकार बतलाया हैवेणिमगोत्सु बज्झमाणीण भागो सि || पिपगतीसु बज्झतिगाण वनरसगंधफासाणं | सम्वासि संघात तशुम्मि य तिगे चउक्के वा ॥
बंधनकरण ग० २६, २७
वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म को जो मूल भाग मिलता है, वह उनकी बंधने वाली एक-एक प्रकृति को ही मिल जाता है, क्योंकि इन कम की एक समय में एक ही प्रकृति बंधती है। नामकर्म को जो भाग मिलता है, वह उसकी बनते बालो प्रकृतियों का होता है। वर्ण, गंध, रस और स्पर्धा को जो भाग मिलता है, वह उनको सब अवान्तर प्रकृतियों को मिलता है | संघास और शरीर को जो भाग मिलता है, वह तीन मा चार बानों में बंट जाता है।