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शतक
अब यह बतलाते हैं कि जीवों द्वारा किस क्षेत्र में रहने वाले कर्मस्कन्धों को ग्रहण किया जाता है और ग्रहण करने की प्रक्रिया क्या है।
प्रारम्भ में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि समस्त लोक पुद्गल. द्रव्य से ठसाठस भरा हुआ है और वह पुद्गल द्रव्य औदारिक आदि अनेक वर्गणाओं में विभाजित है और पुद्गलात्मक होने से ये समस्त लोक में पाई जाती है। उक्त वर्गणाओं में ही कर्मवर्गणा भी एक है, अतः कर्मवर्गणा भी लोकव्यापी है । इन लोकव्यापी कमवर्गणाओं में से प्रत्येक जोन उन्हों कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता है जो उसके अत्यन्त निकट होती हैं . एगपएसोगाढं-यानी जीव के अत्यन्त निकटतम प्रदेश में व्याप्त कर्मबर्गणायें जीव द्वारा ग्रहण की जाती हैं। जैसे आग में तपाये लोहे के गोले को पानी में डाल देने पर वह अपने निकटस्थ जल को ग्रहण करता है किन्तु दूर के जल को ग्रहण नहीं करता है, वैसे ही जीव भी जिन आकाश प्रदेशों में स्थित होता हैं, उन्हीं आकाश प्रदेशों में रहने वाली कमंत्रगंणाओं को ग्रहण करता है तथा जीव द्वारा कर्मों के ग्रहण करने की प्रक्रिया यह है कि जैसे तपाया हुआ लोहे का गोला जल में गिरने पर चारों ओर से पानी को खींचता है वैसे ही जीव भी सर्व आत्मप्रदेशों से कर्मों को ग्रहण करता है।
१ (क) एयखेत्तोगाढ सब्य पदेसेहि कम्मणी जोग्ग । बंधाम मगहेहि य अणादियं शादिय उभय 11 गो० कर्मकांड १८५
एक अभिन्न क्षेत्र में स्थिन कर्मरूप होने के योग्य अनादि, मादि और उभम रूप द्रव्य को यह जीव सब प्रदेशो में कारण मिलने पर
बांधता है। (ख) रागपएसोगावे सबपए मेहि मणो जोगे। जीवो पोमालदचे गिपहई माई अणाई दा -पंचमग्रह २८४
एक क्षेत्र में स्थित कमरूप होने के योग्य मादि अथवा अनादि पुद्गल द्रश्य को गोव अपने समस्त प्रदेशों से ग्रहण करता है ।