Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सिवाय मूल प्रकृति नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है। लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिये कि जिस प्रकार गृहीत पुद्गल द्रव्य उन्हीं कर्मों में विभाजित होता है जिन कर्मों का उस समय बंध होता है, उसी प्रकार प्रत्येक मूल प्रकृति को जो भाग मिलता है, वह भाग भी उसको उन्हीं उत्तर प्रकृतियों में विभाजित होता है, जिनका उस समय बंध होता है और जो प्रकृतियां उस समय नहीं बंधतो हैं, उनको उस समय भाग भी नहीं मिलता है।
सानावरण आदि आठ मूल कर्मों में से पानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार धातिकर्म है और वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र यह चार अघातिकर्म हैं । घातिकमों को कुछ उत्तर प्रकृतियां सर्वघातिनी होती हैं और कुछ देशघातिनी । गाथा में सर्वघातिनी और देशधातिनी प्रकृतियों को लक्ष्य में रखकर प्राप्त द्रव्य के दिमाग को बतलाया है कि-अणंतसो होई सव्वघाईणं-घातिकों को जो भाग प्राप्त होता है, उसका अनन्तवां भाग सर्वघातिनी प्रकृतियों में और शेष बहुभाव बंधने वाली देशवाति प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है'-बझंतीण विभज्जइ सेसं सेसाण पइसमयं ।
ज समय मावश्याई कंधए ताण एरिस बिहीए।
पत्तय पत्तेयं भागे निम्बसए जीवो ।। -पंचसंग्रह २८६ २ (क) जं सचघातिपत्त सगकम्मपएसणंतमो भागो । आवरणाण चउछ। तिहा य अह पंचहा विग्धे ।।
-कर्मप्रकृति, बंधनकरण, पा० २५ जो कर्मदलिक सर्वघाति प्रकृतियों को मिलता है, वह अपनीअपनी मूल प्रकृति को मिलने वाले भाग का अनन्तना भाग होता है और शेष इन्य का बटवारा देशघातिनी प्रकृतियों में हो जाता है । अतः ज्ञानाव रण का शेष दध्य चार भागो में विभाजित होकर उसकी बार देश
(मेष अगले पृष्ठ पर देखें)