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पचम कर्भग।
२८६ लिए उसका द्रव्य सबसे अधिक होता है। इसी से वेदनीय कर्म की स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर होने पर भी उसे सबसे अधिक भाग
मिलता है।
इस प्रकार से मूल प्रकृतियों में कर्मस्कन्धों के विभाग को बतला. कर अब आगे की गाथा में उत्तर प्रकृतियों में उसका क्रम बतलाते हैं ।
नियजाइलद्धवलियागंतसो होइ सम्वघाईण । बज्मतीण विमज्जई सेसं सेसाण पइसमयं ॥१॥
शब्दार्थ --नियजाइलबदलिय --अपनी मूल प्रकृति रूप जाति द्वारा प्राप्त किये गये कम दलिकों का, अशंसंसो-अनन्तवा भाग, होई—होना है, सव्वघाई-सर्वघाती प्रकृतियो का, बज्झतीणबंधने वाला, विमान-विभाजित होता है. सेस शेष भाग, सेसाण- बाकी की प्रकृतियों में, पइसमयं-प्रत्येक समय में ।
__ गाथार्य--अपनी-अपनी मूल प्रकृति द्वारा प्राप्त किये गये कर्मदलिकों का अनन्तवां भाग सर्वघाति प्रकृतियों को प्राप्त होता है और शेष बना हुआ हिस्सा प्रतिसमय बंधने वाली प्रकृतियों में विभाजित हो जाता है। विशेषार्थ-गाथा में यह बताया गया है कि मूल कर्मप्रकृतियों को प्राप्त होने वाला पुद्गल द्रव्य ही उन-उन कर्मों की उत्तर प्रकृतियों में विभाजित होकर उन्हें प्राप्त होता है। क्योंकि उत्तर प्रकृतियों के
१ सहकणिमित्तादो बहुणिज्जर गोत्ति धेरणीयम्म । नवेदितो वहग दल होदित्ति णिष्टुिं ।।
गो० कर्मकांड १६३ ३ स्थिति के अनुमार कनों को अल्प व अधिक भाग मिलने की रीति को गोर
कर्मकार में स्पष्ट किया गया है। उमको जानकारी परिशिष्ट में दो गई है।