Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
पंचम कर्मग्रन्थ
२५९
पान, नियसवपएसउ - अपने समस्त प्रदेशों द्वारा, गहेछ - ग्रहण करता है, जिउ-जीव ।
गाथार्थ – अन्त के चार स्पर्श, दो गंध, पांच वर्ण और पनि रस दाले मानीको हेभी अनन्त पुणे रस वाले अणुओं से युक्त अनन्त प्रदेश वाले और एक क्षेत्र में अवगाड़ रूप से विद्यमान कर्मस्कन्धों को जीव अपने सर्व प्रदेशों द्वारा ग्रहण करता है। विशेषार्थ - गाथा में जीव द्वारा ग्रहण किये जाने वाले कर्मस्कन्धों का स्वरूप वतलाते हुए यह स्पष्ट किया है कि जीव क्रिस क्षेत्र में रहने वाले कर्मस्कन्धों को ग्रहण करता है और उनके ग्रहण की क्या प्रक्रिया है।
जीव द्वारा जो कर्मस्कन्ध ग्रहण किये जाते हैं वे पौद्गलिक है अर्थात् पुद्गल परमाणुओं का समूहविगेष हैं। इसीलिए उनमें भो पुदगल के गुण - स्पर्श. रस, गन्ध और वर्ण पाये जाते हैं । अर्थात् जैसे पूद्गल रूप, रस, गंध, स्पर्श वाला है वैसे ही कर्मस्कन्ध भी रूप आदि वाले होने से पुदगल जातीय हैं।
एक परमाणु में पांच प्रकार के रसों में से कोई एक रस, पांच प्रकार के रूपों में स कोई एक रूप, दो प्रकार की गंधों में से कोई एक गंध और आठ प्रकार के स्पो . गुरु-लघु, कोमल-कठोर, शीत-उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष में से दो अविरुद्ध स्पर्श होते हैं।'
१ कारणमेव तदनन्य सुक्ष्मी नित्यपन्न भयति परमाणः । एकरसगश्वर्णी द्विस्पर्शः कार्यनिङ्गश्च ।।
-नत्त्वार्थभाष्य में उद्धृत परमाणु किसी से उत्पन्न नहीं होता है किन्तु दूसरी वस्तुओं को
(शेष अगले पृष्ठ पर देखें)