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शक्षक
वन्ध न होने का कारण यह है कि जो जीव तिर्यंचति के योग्य प्रकतियों का बन्ध करता है, वही इनका भी जघन्य अनुभाग बन्ध करता है । किन्तु मनुष्य और तिर्यंचों के उतने संक्लिष्ट परिणाम हों जितने कि इन तीन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के लिये आवश्यक हैं तो बे नरकगति के योग्य प्रकृतियों का हो बन्ध करते हैं । इसीलिये मनुष्य और तिर्यंचों को इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध नहीं बताया है । तिरिदुगनिअं तमतमा जिमविरय निरयविणिगथावरयं । आसुहमायब सम्मो व साथिरसुभजसा सिअरा ॥७२॥
शब्दार्थ तिरिदुग–तियंचद्विक, निरं--नीचगोत्र का, तमतमा - तमःतमप्रभा के चारक जिणं-तीर्थकर नामकर्म का, अनिरय-अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य, निरविण - नरक के सिवाय तीन गति वाले जीव, इगावरयं-एकेन्द्रिय आति और स्थावर नामकर्म का, आमुहमा सौधर्म ईशान स्वर्ग तक के देव, आयव आतप नामकर्म का, सम्मो व- सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्याष्टि, सायधिरसुभजसामानावेदनीय, स्थिर नाम, शुभ नाम और शकीप्ति नामकों का, सिअरा-इनको प्रतिपक्षी प्रकृतियों सहित ।
गाथार्थ – तियंचद्विक और नोचगोत्र का जघन्य अनुभाग बंध तमःतमप्रभा नामक सातवें नरक के नारक करते हैं । तीर्थकर नामकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध अविरत सम्यग्दृष्टि जीव करता है। नरकगति के सिवाय शेष तीन गति वाले जीव एकेन्द्रिय जाति और स्थावर नामकर्म का जघन्य अनुभागबन्ध करते हैं । सौधर्म और ईशान स्वर्ग तक के देव आतप नामकर्म का जघन्य अनुभागबंध करते हैं । सातावेदनीय, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और इन चारों को प्रतिपक्षी प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं।