________________
२५७
मनम कर्मग्रभ्य
अनादेय) और उच्च गोत्र का जधन्य अनुभाग बंध चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं, लेकिन वे मध्यम परिणाम वाले होते हैं।
इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और सम्यग्दृष्टि मनुष्य देवहिक का न्ध करते हैं, मनुष्यद्विक का नहीं । संस्थानों में से समचतुरस्र संस्थान का बंध करते हैं। संहनन का बंध नहीं करते हैं । शुभ विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आय और उच्च गोत्र का ही बन्ध करते हैं और मिथ्यादृष्टि दुभंग आदि का बंध करते हैं ।
सम्यग्दृष्टि देव और सम्यग्दृष्टि नारक मनुष्यद्विक का ही बंध करते हैं - तिर्यचद्विक का नहीं। संस्थानों में समचतुरस्र संस्थान का और मंडलों में बज्रऋषभनाराच संहनन का बंध करते हैं। शुभ विहायोगति, सुभग आदि हो बांधते हैं और उनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियों को नहीं बांधते हैं। जिससे उनके प्रतिपक्षी प्रकृतियों का बंध नहीं होता है और उनका बंध न होने से परिणामों में परिवर्तन नहीं होता है तथा परिवर्तन न होने से परिणाम विशुद्ध बने रहते हैं जिससे प्रमस्त प्रकृतियों का जधन्य अनुभाग बंध नहीं होता है। इसी कारण से सम्यग्दृष्टि का ग्रहण न करके मिथ्यादृष्टि का ग्रहण किया है ।
मनुष्यद्विक को उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है और शुभ विहायोगति सुभग, सुस्वर, आदेय, उच्च गोत्र, प्रथम संहनन और प्रथम संस्थान की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोड़ी सागरीयम की है 1 इन शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति से प्रारंभ होकर प्रतिपक्षी प्रकृतियों के साथ उनकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम के स्थितिबंध के अध्यवसाय तक परावर्तमान मध्यम परिणामों से होता है । वह अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त के परावर्त से बंधता है । हुण्ड संस्थान और सेवार्त संहनन की अनुक्रम से वामन संस्थान और कोलिका संहनन के साथ अपनी-अपनी जघन्य
7