Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
इस प्रकार ५+२+२३+४+५+२-१ प्रकृतियां परावर्तमान हैं । इनमें से अनंतानुबंधी कपाय चतुष्क आदि सोलह कपाय और पांच निद्रायें ध्रुवबंधिनी होने से नो बंधदशा में दुमरी प्रकृनियों का उपरोध नहीं करती हैं लेकिन उदयकाल में मजानीय प्रकृति को रोक कर प्रवृत्त होती हैं, क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ में म एक जीव को एक ममय में एक पाय का उदय होना है। इसी प्रकार पांच निद्राओं में किसी एक का उदय होने पर दोष चार निद्राओं का उदय नहीं होता है. 1 अनः परावर्नमान हैं।
स्थिर, शुभ, अग्थिर, अशुभ ये चार प्रकृतियां उदयदशा में विरोधिनी नहीं हैं किन्तु बननदशा में विरोधिनी हैं। क्योंकि स्थिर के साथ अस्थिर का और शुभ के साथ अशुभ का बंध नहीं होता है। इसलिए ये चारों प्रकृतियां परावतमान हैं। शेष ६६ प्रकृतियां वंघ और उदय दोनों स्थिनियों में परम्पर विरोधिनी होने में परावर्तमान हैं ।।
उम प्रकार में परावर्नमान कर्म प्रकृतियों का वर्णन करने के माथ ग्रन्थकार द्वारा निर्दिष्ट धुत्रवन्ध्रि आदि अपरावर्तमान पर्यन्त बारह हारों का विवेचन किया जा चुका है। जिनका विवरण पृ०७२ पर दिये गय कोष्टक में देखिये ।
अब कर्म प्रकृतियों का विपाक की अपेक्षा निरूपण करते हैं।
विपाक में आशय रमोदय का है। कर्मप्रकृति में विशिष्ट अथवा विविध प्रकार के फान देने की शक्ति को और फल देने के अभिमुख होने को विपाक कहते हैं | जैसे आम आदि फन जब पक कर तैयार होने हैं, नत्र उनका विपाक होता है। बैमे ही कम प्रकृतियां भी जब अपना फल देने के अभिमुख होनी हैं नत्र उनका विपाकाकाल कहालाना है।