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पंचम कर्मग्रन्थ
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पश्चात तो अस्थिरादिक का ही बंध होता है और अप्रमत्त आदि गुणस्थानों में स्थिरादिक का ही । मिथ्या दृष्टि में संक्लेश परिणामों की अधिकता है और अप्रमत्त में विशुद्ध परिणामों को अधिकता, अतः दोनों में ही अनुभाग बंध अधिक मात्रा में होता है । इसीलिए इन दोनों के सिवाय शेष बताये गये स्थानों में ही अस्थिर आदि छह प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है।
तसबन्न लेयचउमणुखगइदुग पणिविसासपरघुच्चं । संघयणागिइनपुत्थीसभागारति मिच्छा उगइगा ।।५।।
शब्दार्थ-तसवन्नतेयघउ- सवतुष्क, वर्णचतुष्क, तंजसचतुष्क, मणुखगइदुग—मनुष्य निक, विहायोगति द्विक, पणिवि-पंचेन्द्रिय जाति, सास-उच्छ्वास नामकमं, परघुच्च-पराघात नाम और उच्च गोत्र का, संघयणागिह-छह संहनन और छह एस्थान, मपुत्थी-नपुसकवेद, स्त्रीवेव, सुमगियरति-सुभगत्रिक और इतर दुर्मगत्रिक का, मिन्ट - मिथ्या दृष्टि, घजगइया-चारों गति वाले ।
गाचार्य-वसचतुष्क, वर्णचतुष्क, तंजसत्रतुष्क, मनुष्यद्विक, विहायोगतिद्विक, पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, पराघात, उन्नगोत्र, छह संहनन, छह संस्थान, नपुंसक वेद, स्त्री वेद, सुभगत्रिक, दुर्भगत्रिक का चारों गति वाले मिथ्या दृष्टि जीव जघन्य अनुभाग बंध करते हैं।
विशेषार्थ- गाथा में चालीस प्रकृतियों का नामोल्लेख कर उनके जघन्य अनुभाग बंध का स्वामी चारों गतियों के मिथ्या दृष्टि जीव को बतलाया है। इनमें से कुछ प्रशस्त और कुछ अप्रशस्त प्रकृतियां हैं।
सचतुष्क (बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक), वर्णचतुष्क (शुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श), तेजसचतुष्क (तंजस,कार्मण, अगुरुलधु, निर्माण), पंचे. न्द्रिय जाति, उच्छ्वास और पराघात ये पन्द्रह प्रकृतियां प्रशस्त हैं अतः